यह मंच आपका है आप ही इसकी गरिमा को बनाएंगे। किसी भी विवाद के जिम्मेदार भी आप होंगे, हम नहीं। बहरहाल विवाद की नौबत आने ही न दैं। अपने विचारों को ईमानदारी से आप अपने अपनों तक पहुंचाए और मस्त हो जाएं हमारी यही मंगल कामनाएं...
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Friday, October 15, 2010
जान अलिया की ग़ज़ल
जी ही जी में वो जल रही होगी चाँदनी में टहल रहीं होगी
चाँद ने तान ली है चादर-ए-अब्र अब वो कपड़े बदल रही होगी
सो गई होगी वो शफ़क़ अन्दाम सब्ज़ किन्दील जल रही होगी
सुर्ख और सब्ज़ वादियों की तरफ वो मेरे साथ चल रही होगी
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