मित्रो कल बिटिया और नाती को विदा कर के आज सुबह जब उठा तो बेहद खाली खाली सा महसूस कर रहा था। चूंकि अब समय ही समय है, लिहाज़ा ब्लॉग पर वापस आ गया हूँ। आज बहुत दिन ब्लॉग देखा तो प० सरेश नीरव की ग़ज़ल " पकड़ के हाथ हवाओं का संभलती है सहर" पढ़ के मज़ा आ गया। नीलम जी ने भी उम्दा ग़ज़ल कही है। ख़ास तौर से उन का ये शेर बहुत पसंद आया।
यूँ न चिलमन उठाइये सरे- महफ़िल जानां
नज़र लगेगी जो रुख्सार पे न तिल होगा।
भाई राजमणि जी ने भी बेहतरीन ग़ज़ल पेश की है। इसी क्रम में मजाज़ लखनवी की एक ग़ज़ल बतौर हाज़िरी पेश है।
हुस्न को बेहिजाब होना था
शौक को कामयाब होना था।
हिज्र में कैफे-इज़्तराब न पूंछ
खूने-दिल भी शराब होना था।
तेरे जलवों में घिर गया आखिर
ज़र्रे को आफ़ताब होना था।
कुछ तुम्हारी निगाह क़ाफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था।
रात तारों का टूटना भी मजाज़
बाइसे-इज़्तराब होना था।
मृगेन्द्र मक़बूल
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