
धरा देहरी द्वार पर, पग नूपुर संवार ।
निशिकर उझके चावभर, कैसी ये झंकार । ।
शांत सर्व सौरभ जगन, यौवन रूप उभार ।
अरुणन कीअरुणता द्रग, निशिकर छिपा पिछार। ।
कौंध चपला-सी चंचल, अन्तः हिय मुसकाय ।
बिरियाँ मादकता भरीं , कुंदन नेह बरसाय । ।
साध-साध तन क्षितिजतर, तपा उनतीस बार ।
चन्द्र प्रीति जग हरिकृपा , पूर्ण तीसवीं बार । ।
निशि-कर गहि निशिकर बना, रचा नव महारास।
रजनी ने हँसकर कहा, बीत गया उपवास।
पूर्णमासी जगत सोहि, अन्तः साधक हंस।
बूँद-बूँद से सागर लसा, बदल गया कुल वंस । ।
-भगवान सिंह हंस
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