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Wednesday, April 18, 2012

कविता " संन्यासी हो गया सवेरा "

संन्यासी हो गया सवेरा

संन्यासी हो गया सवेरा
जोगन पूरी शाम हुई
छली रात झूंटे सपनों ने
यूँ ही उमर तमाम हुई

मन ने नित्य उजाले देखे
अंतर्मन के दर्पण में
कर लें दूर अँधेरे हम भी
सोचा बार बार मन में
तन ने किये निहोरे मन के
मत बुन जाल व्यर्थ सपनों के
मयखाने के बाहर तन की
हर कोशिश नाकाम हुई

मटकी दूध कलारिन लेकर
मयखाने से जब गुजरी
होश में आये पीने वाले
मन में एक कसक उभरी
इक पल ऐसा लगा कि उसने
आकर मदिरा हाथ छुई
पीने वालों कि नज़रों में
बेचारी बदनाम हुई ।


यों तो मिलीं हजारों नज़रें
पर न कहीं वह नज़र मिली
चाहा द्वार तुम्हारे पहुंचूं
पर न कहीं न वह डगर मिली
तुम कहते याद न हम आये
हम कहते कब बिसरा पाए
सारी उमर लिखे ख़त इतने
स्याही कलम तमाम हुई ।

सोचा अब अंतिम पड़ाव पर
हम भी थोड़ी सी पी लें
मन में सुधियाँ जाम हाथ में
अंत समय जी भर जी लें
प्याला अभी अधर तक आया
साकी तभी संदेशा लाया
जाम आखिरी पी लो जल्दी
देखो दिशा लमाम हुई ।

बी.एल.गौड़

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