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Sunday, May 20, 2012

सीमा पर आग बरसती है मैं गीत नहीं लिख पाता हूं


सीमा पर आग बरसती है मैं गीत नहीं लिख पाता हूं




मित्रों सत्ता हमेशा कविता की विरोधी होती है।ये सुनी सुनाई बात नही भोगी हुई बात है।अभी २-३ दिन पहले हिप्पोक्रेसी की चर्चा करते करते कवियों को भी लपेट लिया तो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तरह तरह के कमेंट्स आये ।कुछ ने कहा आप भी वही हैं ----------।ऐसे लोगों का सोचना भी ठीक है क्योंकि सत्य का इतना दुरूपयोग हुआ है कि अब सब कुछ झूठ ही नज़र आता है कोई स्वयं से जुडी घटना का ज़िक्र करो भडास या पब्लिसिटी स्टंट से ज़यादा तबज़्ज़ो नही मिलती।फिर सोचता हूं कि समाज से सर्टीफिकेट पाना तो उद्देश्य है नहीं जो सच माने उनका धन्यवाद ना माने उनकी मर्जी जो गरियाये उनको सद्बुद्धि की कामना।
इतनी लंबी चौडी भूमिका इसलिये क्योंकि आज जो कविता आपसे शेयर करने का मन है उसकी कीमत मैने चुकाई है और कुछ दिनो बाद उसे शेयर करते मुझे हिचक होगी।पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की बसयात्रा और करगिल युद्ध ,उसके बाद लिखी गई ये कविता पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के विरूद्ध ना होकर सत्ता के चरित्र के विरूद्ध थी इसलिये दिल्ली में सत्ता परिवर्तन के बाद भी हाशिये पर हूं,हानि लाभ की चर्चा ना करके कविता दे रहा हूं ।१९९९-२००० में अनेक मंचों से पढी गयी इस कविता मू्ल्य आज तक चुका रहा हूं---
सीमा पर आग बरसती है मैं गीत नहीं लिख पाता हूं
रक्त तप्त हो जाता है,   मैं मौन नहीं रह पाता हूं
तुम कहते हो सुख शांति है ,जलते गानों का क्या होगा?
मैं कहता हूं आने वाले तूफानों से बचना होगा
तुम को जो शांति दीखती है वह तो बस एक छलावा है
सौहार्द पूर्ण बातों के नीचे घृणा-द्वेष का लावा है
तुम हंसकर के कह देते हो मैं व्यर्थ ही शंकित होता हूं
निर्दोषों की हत्याओं पर मैं मौन क्यों नहीं रहता हूं?
तुम उनके गले लग सकते हो पर मेरे मन में कांटे हैं
जो समय पूर्व झर गये पुष्प वे किन वस्त्रों पर टांके हैं
तुम्हारी बस-यात्रा से पहले वे बेबस यात्रा पर निकल गये
तुम वाह-वाह सुन मुदित हुये वे गोली शोलों को निगल गये
जिस समय तुम्हारा अभिनंदन अरि की धरती पर होता था
विधवाओं का क्रंदन सुनकर मेरा बेबस मन रोता था
तुमने पोखरण -विस्फोट किया तो हमने नायक बना दिया
धरती आकाश को रवि-शशि को जय-जयकारों से गुंजा दिया
तुम टैक में बैठकर जाते तो हम पथ में शीश बिछा देते
स्वेद कहीं बहता तेरा ,हम अपना रक्त  बहा देते
पर तुम भी तो आखिर नेता तुम को भी वोट बनाने है
ऊंचे-ऊंचे आदर्शों के पुल तुम्हें भी तो बंधवाने हैं
तुम हो महान दुश्मन से भी हंसकर के मिल सकते हो
तुम मोह द्वेष से परे बने रहकर हंसकर सब सह सकते हो
लेकिन मैं वाणी पुत्र भला कैसे सच का उपहास करूं
करगिल में शहीद जवानों को बोलो कैसे शाबास कहूं?
जिसने मां का दामन फाडा तुमने उससे सम्मान लिया
आज़ाद -भगत-बिस्मिल-लहरी का तुमने अपमान किया
तुम हो वोटों के सौदागर ,तुम हो लाशों के सौदागर
कवि नहीं ना ही तुम नेता हो ,तुम हो अस्मत के सौदागर
तुमको सत्ता का नशा लोभ कुर्सी का है
,या फिर माया का कुचक्र यह गहरा है
आखिर कवियों की आत्मा क्यों सुविधा पाते ही मर जाती है
वाणी पुत्रों की अग्नि सत्ता मिलते ही क्यों बुझ जाती
क्या कहूं?करूं क्या समझ नहीं पाता हूं
खुद को कवि कहते डरता हूं ,घबराता हूं
 सत्ता-सुविधा की चाह नहीं ,रवि-शशि की भी परवाह नहीं
नारेबाज़ी औ हुल्लड में छिप पाती करूण कराह नही
भारत माता का बेटा मैं अपमान नहीं सह पाता हूं
सीमा पर आग बरसती है मौन नहीं रह पाता हूं
      --------------------अरविंद पथिक

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