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Friday, June 1, 2012

ये बहकी-बहकी बातें





अरविंद पथिकजी आपका आलेख पढ़ा। 
इसका पहला नुकसान तो मुझे ये हुआ कि मैं जो अपने भीतर से बाहर निकलकर कुछ करना चाह रहा था वो वापस भीतर ही अपनी खोल में चला गया। क्योंकि मैं किसी भी चीज़ को सतही तौर पर नहीं लेता। जब आपका आलेख पढ़ा तो चिंतन के एक सूनामी बवंडर में मैं खूद ही खुद में लापता हो गया। और अभी तक अपने को ढ़ूंढ़ रहा हूं। आपने इतिहास -धर्म और संस्कृति की जो व्याख्या की है उसे पढ़कर विनायक दामोदर सावरकर की याद आ गई। कुछ ऐसी ही शैली है आपकी। निश्चितरूप से आपने जो मुद्दे उठाए हैं उन पर एक-दो टिप्पणियों से कुछ होनेवाला नहीं है। एक लंबे मानसिक प्रशिक्षण और परिवर्तन के लिए तैयार ऊर्जा के संचयन की इसके लिए जरूरत है। और इसे करने के लिए आदमी को दो स्तरों पर लड़ना पड़ेगा। पहले अपने अस्तित्व को बचाने के लिए रोटी की लड़ाई पर और दूसरे उन समाज के ठेकेदारों से जो अधाए पेट बैठे हैं मगर जिनकी भूख कभी खत्म नहीं होगी। ये आज के कीर्ति मुख हैं। जो सबकुछ खा लेने के बाद अपने को भी खा डालने में गुरेज नहीं करते। तीसरे समाज के वो लोग भी हैं जो आदर्श और उसूलों की बात करनेवाले को पाखंडी और छद्म-मसीहा कहते हैं। इनकी नजर में सुभाष चंद्र बोस तोजो का कुत्ता और बिस्मिल-भगतसिंह और चंद्रशेखर आजाद डकैत हैं। घपलेबाजों की सोहबत में पले-बढ़े ये लोग समय काटने के लिए सामाजिक परिवर्तन की बात करना तो पसंद करते हैं मगर जब भी ऐसी कोई गंभीर कोशिश होती है तो ये उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। ये वो दौर है जहां लालू प्रसाद यादव अन्ना हजारे को लोकतंत्र का तमीज सिखाने लगते हैं। जहां बाटला हाउस के एनकांउटर को नकली कहकर वोटो की तिजारत की जाती है। उस दौर में जहां जातिगत आऱक्षण को सामाजिक न्याय कहा जाता है। जहां धर्म की बात करवेवाले को सांप्रदायिक मान लिया जाता है। वहां धर्म और मनुव्यवस्था की बातें करना अनुत्पादक बाल श्रम से ज्यादा कुछ नहीं है। जहां पेट्रोल की कीमत बढ़ने पर सिर्फ रस्मी धरने-प्रदर्शन होते हैं। लोग कीमत बढ़ना और मंहगाई दो अलग चीज़े मान चुके हैं और हर हाल में खुश रहने का जुगाड़ तलाश लेते हैं। जहां चिंतक-विचारक भूखे मरते हों और लतीफेबाजों को मोटे पेमेंट पर बुलाया जाता हो ऐसे आत्ममुग्ध समाज में आपकी तूती की आवाज गलती से मैंने सुन ली। मेरा एक दिन और हाथ से निकल गया। कहीं क्रिकेट या राजनीति या फिर फिल्मी तारिकाओं की चर्चा में दिन कटता तो सार्थक हो जाता।  मैं कुपित होकर आप को शाप देता हूं -तू मेरी तरह ही तड़पे तुझ को करार न आए कभी...। क्रांति-भ्रांति की बातें खाली समय की उपज हैं। फालतू दिमाग शैतान का घर। किसी अकादमी या रेडियो स्टेशन पर जाकर संपर्क बढ़ाओ। कुछ धन लाभ हो जाएगा। खाली-पीली काई कू टाइम खोटी करता।
पंडित सुरेश नीरव

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