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Saturday, May 9, 2009

आजकल



हम नहीं मिलते हमीं से एक अर्सा आजकल
रूह में रहने लगा है एक डर-सा आजकल
दर्द के सेहरा में भटके आंख में आकर टिके
आंसुओं को मिल गया है एक घर-सा आजकल
फूल-पत्ती-फल-हवाएं साथ में कुछ भी नहीं
ठूंठ में ज़िंदा दफन हूं इक शजर-सा आजकल
बर्फ़ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फा किए
जी रहा हूं रेत में गुम उस शहर-सा आजकल
सांस के पिंजरे में कै़दी उम्र का बूढ़ा सुआ
लम्हा-लम्हा जी रहा है इक कहर-सा आजकल
हो जहां साजिश की खेती और फरेबों के मकां
आदमी लगने लगा है उस शहर-सा आजकल
इस हुनर से जान लेता की कोई चर्चा न हो
दोस्त मीठा लग रहा है उस जहर-सा आजकल।
पं. सुरेश नीरव

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