नवागत सदस्य भाई प्रदीप शुक्ला का लोकमंगल परिवार में स्वागत है और अपेक्षा है वो भी नियमित अपनी हाज़िरी दर्ज़ कराएंगे।
आज मोइन अहसन जज़्बीकी एक ग़ज़ल पेश है।
मिले ग़म से अपने फ़ुरसत तो सुनाऊं वो फ़साना
कि टपक पड़े नज़र से मये- इशरते- शबाना।
यही ज़िन्दगी मुसीबत, यही ज़िन्दगी मसर्रत
यही ज़िन्दगी हकीक़त, यही ज़िन्दगी फ़साना।
कभी दर्द की तामन्ना कभी कोशिशे- मदावा
कभी बिजलियों की ख्वाइश, कभी फ़िक्रे- आशियाना।
मेरे कहकहों के ज़द पर, कभी गर्दिशें जहाँ की
मेरे आंसुओं की रौ में कभी तल्खी- ऐ- ज़माना।
कभी मैं हूँ तुझसे नाला, कभी मुझसे तू परेशाँ
कभी मैं तेरा हदफ़ हूँ, कभी तू मेरा निशाना।
जिसे पा सका न ज़ाहिद, जिसे छू सका न सूफी
वही तीर छेदता है मेरा सोज़े- शायराना।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
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