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Wednesday, July 22, 2009

चिंतन का विषय

सचान जी के कार्यकृम के बारे में तो सब कुछ चांडाल जी और हंस जी ने सब कुछ कह डाला धोखे से मेरे हिस्से मे जो पृशंसा के दो शब्द चांडाल जी के पराकृम से आ गये थे उनकी खुशी भी ज्यादा देर तक नही मना सका।यही कहना पडता है---------
मै राहें कितनी ही बदलता रहा
मगर साथ सहरा तो चलता रहा
हंस जी ने पश्यंती के विमोचन की बात उठायी है तो भाई जब यह पुस्तक होरीलाल सचान जैसे महान साहित्यकार जिसने राजकुमार सचान जैसे विश्वकोश की रचना की है ,को समर्पित हो गया के विमोचन की व्यवस्था करनी पडे तो निश्चित रुप से चिंतन का विषय है।
नीरव जी का ब्लाग ब्लाक हो जाना निश्चित रुप से गंभिर बात है हम तो कामना हि कर सकते हैं कि वे शीघृ् ही इस ब्लाककर्ता रुपी दानव का संहार कर सोलहो कलाओं मे पृकट होंगे ।कल मै उनसे मिलने पीपल की छांव में गया भी था पर १० मिनट तक इंतजार कर भरे मन से वापस आ गया।कार्यालयीन माहौल तो मेरे यहाम का भी बताने लायक नही है सो मै उनकी परिस्थितियोम को समझता हुं। चलो एक नया कविता सुनाता हूं
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
संघर्षों के ढेर से हमने सुख के पल बीने
किंतु कभी हंसते नयनों से स्वप्न नहीं छीने
यों तो हम मधुमासी रातों मे संत्रस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
चाटुकारिता के कांधे चढ बौने ऐंठ गये
लेकिन ऐसा नही कि कुंठित हो हम बैठ गये
शनैः शनैः ही सही मगर हम गति अभ्यस्त रहे
यों तो बिना वजह ही सारे दिन हम व्यस्त रहे
अगर सामने कभी पड गये झुक झुक नमन किये
ऐसे मित्रों ने पीछे से भीषण ज़खम दिए
हंसकर दर्द सहे सहकर हम खुद मे मस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
औरों को क्या कहें तुम्हारे लिए भी हम बोझा
मन मे जगह नही दी लेकिन अखबारों मे खोजा
सच तो यह है तुम भी हमको करते पस्त रहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
जीवन जैसा मिला हमे हमने हंसकर स्वीकारा
कई खोखले वट वृक्षों को हमने दिया सहारा
ज्यों ही मौका लगा उन्होने कर मे शस्त्र गहे
महानगर के छल छंदों से तन मन त्रस्त रहे
उम्मीद है आपको कविता पसंद आयेगी।

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