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Tuesday, January 12, 2010

फूल थे, बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी

फूल थे, बादल भी था और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही एक शक्ल की हसरत भी थी।

जो हवा में घर बनाए, काश कोई देखता
दश्त में रहते थे पर तामीर की आदत भी थी।

कह गया मैं, सामने उसके , जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था, कुछ मेरी हिम्मत भी थी।

अजनबी शहरों में रहते, उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फासले पर घर हर राहत भी थी।

क्या क़यामत है मुनीर, अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना, जिनसे हमें उल्फत भी थी।
मुनीर नियाज़ी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल

2 comments:

Rajeysha said...

मुनीर जी खूब कहा है।

Udan Tashtari said...

मुनीर नियाज़ी के हम शुरु से फैन हैं...बहुत आभार आपका.