हास्य-ग़ज़ल-
औंधे गिरे डगर में छिलके से वो फिसल के
दांतों का सेट मुंह से बाहर गिरा निकल के
शायर निकल के आया पतली गली ले चल के
इस हादसे पे पेले कुछ शेर यूं गजल के
गड्ढे भरी है सड़कें चिकना बहुत है रस्ता
है उम्र भी फिसलनी चला ज़रा संभल के
पैदल हो अक्ल से तुम और आंख से भी अंधे
क्या तीर मार लोगे इंसानियत पे चल के
हालात हैं निराले मेरे नगर के यारो
पानी तो है नदारद बिल आ रहे हैं नल के
फिर इस चुनाव में भी डूबी है इनकी लुटिया
आया ना रास कोई दल देखे सब बदल के
वो और हैं जिन्होंने गिरवी रखा कलम को
नीरव बने न भौंपू अब तक किसी भी दल के।
पं. सुरेश नीरव
1 comment:
waah jee
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