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Wednesday, March 3, 2010

पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है

पूछते हो तो सुनो, कैसे बसर होती है
रात खैरात की, सदके की सहर होती है।

सांस भरने को तो जीना नहीं कहते यारब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है।

जैसे जागी हुई आँखों में चुभें कांच के ख्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है।

ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूंढता है
एक लमहे की जुदाई भी अगर होती है।

एक मरकज़ की तलाश, एक भटकती ख़ुशबू
कभी मंज़िल, कभी तमहीदे- सफ़र होती है।
मीना कुमारी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

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