
प्रतिबद्धता पर पंडित सुरेश नीरव के गहन साक्षात्कार की आत्मा तक पहुंचना हर किसी के बस की बात नहीं है मगर एक सार्थक कोशिश उन्होंने यानी हंसजी ने की है। भाई भगवान सिंह हंस ने जो उसकी तार्किक मीमांसा की है वह काबिले तारीफ है। साथ ही जो एक आध्यात्मिक क्षेपक से इस प्रतिबद्धता की व्याख्या प्रस्तुत की है वह नितांत मौलिक और सटीक है। यथा-
जब राजा शीरध्वज ने देखा कि उनकी लाडली सीता ने झाड़ू लगते समय शिवजी का धनुष जिसको बड़े-बड़े महारथी टस से मस नहीं कर सके, सहज ही खिलौना की तरह उठाकर अलग रख दिया। यहाँ राजा की विचार के साथ प्रतिबद्धता एक प्रण है जिसकी सीमा है-----। इसलिए विचार की जगह में मूल्यों की प्रतिबद्धता ज्यादा महत्वपूर्ण है। मूल्यगत प्रतिबद्धता सृजन को विराटता देती है। कबीर की वाणी का मूल्य पाखण्ड पर प्रहार है। यहाँ उनकी वाणी के साथ संलग्नता है ,प्रतिबद्धता नहीं। ऐसे ही तुलसी जो राममय हैं, की वाणी के साथ भी संलग्नता हैं, प्रतिबद्धता नहीं। इसलिए ही दोनों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक आदर्शोन्मुख हैं। यही चेतना की यात्रा हैजो अनवरत है, सतत है और शाश्वत है।
मैं हंसजी को बधाई देती हूं।
डाक्टर प्रेमलता नीलम
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