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Sunday, October 31, 2010

प्रतिबद्धता और संलग्नता


साहित्यिक जगत के आँचल पर विश्व के जाने-माने हस्ताक्षर जो शब्दऋषि से सम्मानित एवं स्वर्णमुकुट से अलंकृत पंडित सुरेश नीरवजी का वैचारिक विश्लेषण जो प्रतिबद्धता व संलग्नता पर केन्द्रित है, चेतनमानस में एक गहरी पहुँच है, वे इसके लिए बधाई के ही नहीं बल्कि साधुवाद के पात्र हैं। मैं ऐसे जीवट एवं प्रतिभावान हस्ताक्षर को शत-शत नमन करता हूँ। उनके ऐसे विचारों से हमें सोच, मनन , शक्ति , सामर्थ बड़ी जीवटता के साथ विलक्षणता से मिलते हैं। मैं समझता हूँ कि पंडितजी का भाव भी इन्हीं बिन्दुओं पर निहित हैकि हम उससे क्या सीखे, क्या पढ़ा और ये बात पंडितजी ने क्यों कही इत्यादि। मेरे कहने का तात्पर्य है वह सिर्फ पढ़ने तक ही सीमित नहीं है बल्कि विचारोत्सुक है। पंडितजी ने बताया है कि विचार और विचारधारा दो अलग-अलग चीजें हैं। विचार सतत व प्रवाहमान है और विचारधारा सीमित व स्थिर है। वाक विचार का ही उद्भव है। विचार के साथ प्रतिबद्धता तो है अपितु संलग्नता नहीं है, यह अर्थहीन है। उन्होंने बताया कि इससे नुकसान भी है और फ़ायदा भी है। ऐसी प्रतिबद्धता विचार के साथ मूल्यगत होनी चाहिए। क्योंकि मूल्यगत प्रतिबद्धता ही स्रजनात्मक है जो साहित्य को एक द्रष्टि देती है। दूसरी तरफ विचारधारा की प्रतिबद्धता मानसिक विकृति हैजो मनुष्य की भावुक हठ है जिससे व्यक्ति बौना बन जाता है। पंडितजी ने मुंहदेखी बात नहीं कही है बल्कि सांसारिक कबीले को जीवटता देकर उसके लिए श्रेयस्कर की बात कही है। प्रतिबद्धता एक हठ है ,एक प्रण है और एक स्थिरता है जो एक सीमा का बंधन है। जब राजा शीरध्वज ने देखा कि उनकी लाडली सीता ने झाड़ू लगते समय शिवजी का धनुष जिसको बड़े-बड़े महारथी टस से मस नहीं कर सके, सहज ही खिलौना की तरह उठाकर अलग रख दिया। यहाँ राजा की विचार के साथ प्रतिबद्धता एक प्रण है जिसकी सीमा है-----। इसलिए विचार की जगह में मूल्यों की प्रतिबद्धता ज्यादा महत्वपूर्ण है। मूल्यगत प्रतिबद्धता सृजन को विराटता देती है। कबीर की वाणी का मूल्य पाखण्ड पर प्रहार है। यहाँ उनकी वाणी के साथ संलग्नता है ,प्रतिबद्धता नहीं। ऐसे ही तुलसी जो राममय हैं, की वाणी के साथ भी संलग्नता हैं, प्रतिबद्धता नहीं। इसलिए ही दोनों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व एक आदर्शोन्मुख हैं। यही चेतना की यात्रा हैजो अनवरत है, सतत है और शाश्वत है। पंडितजी ने बताया है कि बिहारी और रहीम जो दरबारी कवि थे के लेखन इस पद्धति में नहीं आते हैं। वस्तुतः उन्होंने साहित्यिक अभिव्यक्ति बड़ी ईमानदारी से की है। कहने का तात्पर्य है कि प्रतिबद्धता किसी शर्त से बंधी होती है , वह वचनबद्ध है और प्रणमयी है जबकि संलग्नता शर्तमुक्त, वचनमुक्त एवं प्रणमुक्त हैजो एक अमिट सम्बन्ध है और वही सतत एवं शाश्वत है तथा वही आदर्शमयी है। ऐसे ज्ञानवर्धक शाब्दिक विवेचन के लिए मैं पंडितजी को साधुवाद देता हूँ। प्रणाम।
-भगवान सिंह हंस

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