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Sunday, October 10, 2010

बृहद भरत चरित्र महाकाव्य


मुनि जावालि का नास्तिक मत -


पुत्र धर्मग्य शील सुभावा। बिलोक दृढ मुनि आया तावा। ।
वृद्ध जावालि उठे प्रबुद्धा । विप्र शिरोमणि धर्म विरुद्धा । ।

पुत्र राम बहुत धर्मग्य शील स्वभाव वाला है। उसको दृढ़ देखकर मुनि जावालि को गुस्सा आया । प्रबुद्ध और वृद्ध जावालि उठे । विप्र शिरोमणि! यह धर्म के विरुद्ध है ।

रघुनन्दन! तुम उचित उचारा। पर मन में निर्थक विचारा। ।
श्रेष्ठ बुद्धि तपस्वी वाणी । पर गँवार जैसी मन ठानी । ।

हे रघुनन्दन! तुमने उचित ही कहा है । परन्तु मन में निर्थक विचार है। तुम्हारी श्रेष्ठ बुद्धि और तपस्वी वाणी है। परन्तु मन में गँवार जैसी ठान ली है।

कौन पुरुष किसका है है बंधू। यह संसार वारि जस सिंधू। ।
ससेकिसको क्या पाना है । अकेला ही आना जाना है । ।

राम! इस संसार में कौन पुरुष और किसका बंधु है । यह संसार जल जैसा समुद्र है किससे किसको क्या पाना है। संसार से सबको अकेला ही आना-जाना है।

जो मात पिता प्रति आसक्ता। वह पागल तुल्य नष्ट वक्ता। ।
किसी का कुछ नहिं यहाँ कोई। द्रगित जस वारि सोहे सोई । ।

जो पुत्र मात पिता के प्रति आसक्त है। वह पागल तुल्य है। और समय को व्यर्थ नष्ट करता है। यहाँ किसी का कुछ नहीं है। और नहीं किसीका कोई है। सब पानी के बुलबुले के के सामान शोभित हैं।

रचयिता - भगवान सिंह हंस

प्रस्तुत कर्ता- योगेश

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