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Friday, November 12, 2010

प्रौद्योगिक संस्कृति वनाम भारतीय संस्कृति


विश्वमोहन तिवारीजी! बिश्लेषणकर्ता एक नहीं अनेक हैं परन्तु वे अपने संकोचवश लिख नहीं पाते हैं। आपका प्रौद्योगिक संस्कृति वनाम भारतीय संस्कृति पर बड़ा ही सारगर्भित लेख है। एक तरफ जहाँ प्रौद्योगिकी चाँद पर चढ़ती द्रष्टिगोचर हो रही है वहीँ वह सूर्य की तपन से जलती भी नज़र आ रही है। प्रौद्योगिक अवधारनाएं उन्नति तो कर रही हैं पर अपनी भारतीय मूलभूत संस्कृति को डुबो भी रही हैं। मनुष्य का कार्यकलाप मेकअप की ओर तो अग्रसर है लेकिन उससे यौनिक एवं बेकारी की अमानवीय संस्कृति विकसित हो रही है जो एक दिन हमारी भारतीय सभ्यता/वैदिक सभ्यता को हजम कर जायेगी फिर वह मनुष्यता चीखती/चिल्लाती दिखाई देगी जिसको कोई नहीं बचा पायेगा। उस समय मनुष्य का जीवट जीवन एक पशु की तरह हो जायेगा यानी पशु और मनुष्य में कोई अंतर नज़र नहीं आएगा। सब कुछ खुला गली/मोहल्ला में होता दिखाई देगा। प्रौद्योगिकी से कल /कारखाने/ हवाई जहाज उड़ते तो दीखेंगे अपितु मनुष्य भी उड़ता ही दीखेगाक्योंकि उस समय उसकी मनुष्यता यानि भारतीय संस्कृति ख़त्म हो चुकी होगी। फिर क्या आशय रह जायेगा इस प्रौद्योगिकी का , केवल विनाश। इसलिए श्री विश्वमोहन तिवारीजी का निष्कर्षतः विचार बिल्कुल सही है कि प्रौद्योगिक संस्कृति को अपना आधार अपना आधार भारतीय संस्कृति को बनाना चाहिए। मैं ऐसे जनजागरण कर्ता को बधाई ही नहीं बल्कि साधुवाद भी देता हूँ और यह आग्रह भी करता हूँ कि वे हमें ऐसे ज्ञानवर्धक आलेखों से आगे भी दिशावलोकन कराते रहें। प्रणाम। जय लोकमंगल।
भगवान सिंह हंस -एम-9013456949

1 comment:

vishwa mohan tiwari said...

श्री हंस जी
आपने बहुत ही सारगर्भित टिप्पणी दी है।
मेरा उत्साह वर्धन् हुआ है।
धन्यवाद
विश्व् मोहन् तिवारी