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Friday, November 5, 2010

आस्था की कसौटी

दो दिन पहले आस्था पर चर्चा हो रही थी। मुझे आने में देर हो ग़ई है, क्षमा करेंगे । मेरे विचार किसी के विरोध में नहीं लिखे जा रहे हैं, मात्र स्थिति को स्पष्ट करने के उद्देश्य से प्रस्तुत हैं।


आस्था शब्द भिन्न अर्थों में उपयोग किया जाता है। अतएव इस गम्भीर चर्चा के लिये हम उसके अर्थ को सुनिश्चित कर लें। शब्दकोश भी आस्था के अर्थ देते हैं - आदर, विश्वास, श्रद्धा आदि; और मूल्य आदि में विश्वास। किसी की बात को मान लेना उस पर विश्वास करना है। कि सूर्य कल सुबह भी उदय होगा, यह मान लेना उस पर श्रद्धा करना है, क्योंकि कोई ब्रह्माण्डीय दुर्घटना उसे बदल सकती है, अर्थात आप उपलब्ध ज्ञान के आधार पर यह विश्वास कर रहे हैं कि कि ऐसी कोई दुर्घटना नहीं होगी। इस सृष्टि का कोई रचयिता है यह मान लेना उस विश्वास पर या उस ग्रन्थ पर जिसमें यह लिखा है, आपकी आस्था है, क्योंकि इसे सिद्ध करने में तर्क भी अपने को सीमित पाता है। अर्थात किसी कथन या सिद्धान्त को बिना सिद्ध किये, अपनी स्वतंत्र इच्छानुसार या किसी ग्रन्थ या आप्त वाक्य के आधार पर सत्य मान लेना उस पर आस्था करना है। ईश्वर के अस्तित्व पर, या आत्यंतिक मानवीय मूल्यों को, जैसे, 'अपने पड़ोसी से प्रेम करो' को, आदर्श मान लेना आस्था के उदाहरण हैं।

एक उदाहरण से स्थिति कुछ अधिक स्पष्ट होगी। क्या अर्जुन की श्रीकृष्ण पर आस्था थी? प्रारंभ में तो केवल मित्रवत प्रेम तथा विश्वास था जिसके बल पर उऩ्होंने कृष्ण को उऩ्हीं के सुझाव पर अपना सारथी माना। दूसरे अध्याय के ७वें श्लोक में‌ अर्जुन अपने को कायर समझते हुए श्रीकृष्ण का शिष्य मानकर उनसे युद्धभूमि में कल्याणकारक शिक्षा मांगते है। किन्तु अभी भी अर्जुन में गुरु के प्रति जो श्रद्धा होना चाहिये वह नहीं है, मात्र आदर भाव है, क्योंकि वह साथ ही कह देते हैं कि राज्यादि के लिये वह युद्ध नहीं करेंगे। और वह अध्याय दर अध्याय प्रश्न पर प्रश्न करते हैं। छठवें अध्याय के ३९ वें श्लोक में उनमें श्रीकृष्ण के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई है, क्योंकि वह कहते हैं कि उनके संशय का छेदन करने के लिये श्रीकृष्ण ही योग्य हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अब प्रश्न नहीं करते, जिज्ञासु के समान सोच समझ कर करते हैं। दसवें अध्याय में उसमें श्रीकृष्ण के प्रति 'आस्था' उत्पन्न होती है क्योंकि वह उऩ्हें ब्रह्म और ईश्वर मानते हुए उनके दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करते है। दर्शन के पश्चात उसके मन में संशय नहीं रहते, उसके प्रश्न अपना अज्ञान मिटने के लिये ज्ञान प्राप्त करने के लिये होते हैं। और १८वें अध्याय में वह कहते हैं कि उसका मोह नष्ट हो गया है और वह उनके वचनों के अनुसार ही कार्य करेंगे। अर्जुन भाग्यवान थे कि उसकी आस्था की ११ वें अध्याय में पुष्टि हो गई और वह एक जीवन्त अनुभूति में बदल गई। हम में से तो अपवादस्वरूप ही मनुष्य होते हैं जिनकी आस्था की पुष्टि इस जीवन में‌ हो पाती है।

धर्म और आस्था में अटूट संबन्ध है। ब्रह्माण्ड की सृष्टि का कारण क्या है? क्या इस सृष्टि का कोई रचयिता है? मानव जीवन का उद्देश्य क्या है?, क्या मृत्यु के परे भी जीवन है? धर्म अधिकांशतया ऐसे प्रश्नों या जिज्ञासाओं के समाधान देता है, और अक्सर इन पर विज्ञान की पहुँच नहीं होती है। विज्ञान- प्रमाणित समाधान को सच माना जाता है, क्योंकि आज हमारी विज्ञान पर अटूट न सही पर बहुत श्रद्धा है। विज्ञान अन्तत: 'क्यों' का उत्तर नहीं दे पाएगा। धर्म यद्यपि ऐसे गंभीर प्रश्नों के उत्तर देते तो हैं, किन्तु दृष्टव्य है कि धर्म प्रदत्त समाधान तर्कों से भी परे हो सकते हैं, वे आस्था पर अधारित हो सकते हैं। तर्कों से परे होना हमेशा दुर्बलता की निशानी‌ नहीं है, और न आस्था पर निर्भर होना। कोई विशिष्ट अनुभूति भी प्रमाण बन सकती है।

विज्ञान और धर्म या आस्था में विरोध आवश्यक नहीं है। वैसे देखने की‌ बात यह है कि मानव कल्याण ही सभी मान्यताओं की विश्वासों की कसौटी होना चाहिये। हमारे जीवन में आदर, विश्वास, श्रद्धा और आस्था तथा वैज्ञानिक समझ इन सभी गुणों की आवश्यकता है, बस अन्धविश्वास नहीं होना चाहिये।

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