पुस्तक समीक्षा
छद्म के तिलिस्म को तोड़ते हुए व्यंग्य
कुरसीपुर का कबीर सुपरिचित व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी का विमर्शपूर्ण अर्थवान टिप्पणियों से लैस एक ऐसा व्यंग्य संग्रह है जिसमें बाजार के साम्राज्य में खामोशी से दिन-ब-दिन बेदखल होते आदमी की पीढ़ा है और खुद को बचाते हुए बाजार से लड़ने की जद्दोजहद भी। सत्ता द्वारा निरीह जनता पर विविध डाके डालने की कुत्सित प्रयोगधर्मिता का पर्दाफाश है और डंडीमार कुरसी के बंदरों के भौंड़े सर्कस से ऊबी जनता के द्वारा नैतिकता के नए ठिकाने तलाशती जिजीविषा की शिनाख्त भी है। गोपाल चतुर्वेदी ने अधिकारी के रूप में एक लंबे समय तक दफ्तर को जिया है इसलिए संकलन के कई व्यंग्य दफ्तर के अनुभव-यथार्थ का बड़ी मुस्तैदी से भार-वहन करते हैं और पूरी तैयारियों के साथ बाबूओं और अधिकारियों दोनों को बड़े सलीके से पुचकारते और ललकारते तो हैं ही साथ-ही-साथ अधिकारी के छद्म आभिजात्य को केबिन की सुरक्षित पनाहगाह से खींचकर व्यंग्य के सार्वजनिक चौराहे पर लाकर खड़ा भी करते हैं। और उस दफ्तरी पाखंड का समारोहपूर्वक वध करते हैं जिसमें कि अधिकारी का हर कुकृत्य श्रद्धेय और मातहत का सुकृत्य भी हेय समझा जाता है। संकलन को पढ़ते हुए कई बार इस बात की सुखद जानकारियां भी मिलती हैं कि कैसे एक सतर्क रचनाकार की निगरानी में शब्द व्यंग्य में ढल जाता है। गोपालजी के व्यंग्य सिर्फ दिलचस्प संवादों का अंबार नहीं हैं बल्कि ये पाठकों में एक नए व्यंग्य-बोध का सृजन भी करते हैं। गौरतलब है कि संकलन के व्यंग्यों की जो अंतर्वस्तु है वह विसंगतियों के पिटारे को ढोती नहीं है बल्कि उसे झटककर-पटककर उस पर अचूक और निडर प्रहार भी करती है। प्रतिमानों की यह आक्रामक निडरता और अ-भीरुता इसलिए है क्योंकि ये प्रतिमान न तो बाहर के प्रत्यय है और न सप्रयास हैं। बल्कि ये प्रतिमान समय सापेक्ष हैं और समकालीनता से पैदा हुए हैं। इसलिए इनमें अवांक्षित मान्यताओं को नकारने का भरपूर दमखम है। जिस कारण ये व्यंग्य के कामचलाऊ चौखटे से बाहर निकलकर पाठकों से बतियाते भी हैं। दफ्तरी उपकरणों से लैस इन व्यंग्यों को और अधिक संप्रेष्य बनाने के लिए गोपालजी ने जिन कथात्मक युक्तियों का सहारा लिया है,वह एक चतुर प्रयोग है मगर कथात्मकता का यह अतिरिक्त आग्रह कहीं-कहीं व्यंग्य की सांद्रता को तनु कर देता है। आज सृजन-समय के सामने मूल्यहीन राजनीति और बढ़ता बाजारवाद ऐसी वीभत्स चुनौतियों के रूप में उभरे हैं कि इनके बीच खुद के लिए स्पेस तलाशना आदमी के लिए दुरूह होता जा रहा है। और तब तो और भी ज्यादा दुरूह जब कि चालाक राजनीति की विजय यात्राओं के उत्साही शोर और बाजार की चकाचौध में गुम होती नई पीढ़ी हतप्रभकारी अंतर्विरोधों को ही अपना सुरक्षा कवच मान ले। ऐसी विडंबनात्मक स्थिति में व्यंग्यकार की चौकन्नी नजर सत्ता के फरेब और समाज की छलनाओं को बेनकाब करती हुई कड़वी सचाई से सीधा साक्षात्कार कराती है। कुल मिलाकर संगृहीत व्यंग्य किसी-न-किसी तरह लोकजागरण की सामाजिक भूमिका निभाते हुए एक नए समाज की पुष्ट व्याख्या करते हैं। साथ ही इस बात के लिए हमें आगाह भी करते हैं कि जिन हथियारों के बूते हम उपनिवेशवाद से जूझे थे समय की जंग ने उन हथियारों को मोंथरा कर दिया है। नई चुनौतियों से निबटने के लिए हमें नए हथियार ईजाद करने होंगे। लोक के लिए यह रचनात्मक प्रतिबद्धता ही लेखक की निजी बौद्धिक संपदा है जो व्यंग्य को सहज ही सार्वजनिक उत्पाद भी बनाती है। कुल मिलकर समकालीन व्यंग्य रचना संसार में कुरसीपुर का कबीर व्यंग्य-संग्रह एक जरूरी किताब का दर्जा रखती है।
पुस्तकः कुरसीपुर का कबीर
लेखकःगोपाल चतुर्वेदी,प्रकाशकः ज्ञानगंगा,दिल्ली,मूल्यः250 रुपये
समीक्षकः सुरेश नीरव
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद-201001
मोबाइलः9810243966
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