आदरणीय सुरेश नीरव जी
आप सदैव ही सटीक बात कहते हैं
मुझे अपनी एक कविता इस पर याद आ रही है
कविता का शीर्षक है -
आजादी की छानस
आजादी तो पा ली थी कई बरसों पहले
क्यूँ करते पुराणी बात हैं?
क्या खोया था इसे पाने में
किसको अब याद है
क्यूँ पुरानी बातें सोचें
उनको याद करना बेकार है
आजादी को जी भर जियें
हर दिल की यही फरियाद है
इक नया सूरज उगता है हर घर में
और नया इक चाँद है
अपने आजादी के सूरज से उसका घर फूंके
क्या इसलिए की हम आजाद हैं ?
भूल गए हैं अपनी संस्कृति
भूले हर इक रिवाज़ हैं
किसने खेतों में बीज उगाया
किसके गल्ले में अनाज है?
हिंदू मुस्लिम को लड़वाती है जो
बेहिचक कहाँ से आती वो आवाज है
आओ हिन्दुस्ता को अंग्रेजिस्तान बनाएँ
अब हम अंग्रेज़ी के गुलाम हैं।
छलनी में डाल ली थी शायद आजादी
जिसे छानते हम आज हैं
छन छन कर रह गयी आज़ादी की छानस
फिर भी खुशी मनाते हैं की हम आज़ाद हैं.
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