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Tuesday, November 9, 2010

नारी की अन्तस पीड़ा

उम्र भर वो मेरे साथ चलते रहे
मेरे मन-प्राण फिर भी मचलते रहे

मेरी पीड़ा ने उनको छुआ भी नहीं,
वेदना का ज़हर कम हुआ भी नहीं;
अश्रु बन, मेरे आवेश, ढलते रहे!

कहने को तो चमन है ये सहरा नहीं,
आत्मा कैद है कोई पहरा नहीं;
ओस पर भी मेरे पांव जलते रहे

आत्म सम्मान जाने कहाँ खो गया,
नीर नयनों का सारा कलुष धो गया;
मेरे विश्वास ही मुझको छलते रहे

आचरण की बनी है नई संहिता,
पुष्ट उनका अहं, मृत मेरी अस्मिता;
भाव मेरे, अभावों में पलते रहे

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