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Saturday, December 4, 2010

विकीलीक्स के प्रकाश में हमारी कूट्नीतिक स्थिति

अमिताभ त्रिपाठी
अभी कुछ दिनों पूर्व ही विकीलीक्स ने एक बार फिर अमेरिका के अनेक गोपनीय दस्तावेजों और राजनयिकों के केबल संदेश को सार्वजनिक कर सनसनी मचा दी है। विकीलीक्स ने जिन विषयों को स्पर्श किया है वे काफी व्यापक हैं लेकिन जिन विषयों का सीधे सीधे भारत से सम्बन्ध है उनके प्रकाश में निश्चय ही भारत की कूटनीतिक स्थिति की समीक्षा की जा सकती है। विकीलीक्स से सम्बन्धित जो विषय भारत के लिये मह्त्व के हैं उनमें अधिकतर का सम्बन्ध 26 नवम्बर 2008 को भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई पर हुए आतंकवादी आक्रमण से है। विकीलीक्स से एक बात पूरी तरह स्पष्ट हो गयी है कि इस आक्रमम के पश्चात जिस तरह से तत्कालीन भारत सरकार ने अपनी कूटनीतिक विजय की आत्मश्लाघा की थी वह देश को गुमराह करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था। इस आक्रमण के पश्चात एक तरीके से ऐसा वातवरण बनाया गया कि सरकार के किसी कदम की आलोचना करना बलिदान देने वाले सैनिकों और सामान्य जनों के शवों पर राजनीति करने के समान मान लिया जाता था और उसी भावुकता का लाभ उठाकर तत्कालीन सरकार ने विश्व पटल पर भारत की छवि को क्या स्वरूप दिया यह तो आज विकीलीक्स के खुलासों से स्पष्ट है।
निश्चय ही इन खुलासों के बाद अमेरिका के दोहरे व्यवहार पर अधिक चर्चा हो रही है लेकिन मैं पाठकों को याद दिलाना चाहता हूँ कि अपने लेखों में बारबार मैंने इस बात का उल्लेख किया था कि जिस प्रकार की प्रतिक्रिया भारत सरकार ने दी है उसके आधार पर हम किसी को भी अपने साथ खडा होने की अपेक्षा नहीं कर सकते। उस समय के ये लेख अब भी उपलब्ध हैं जो कि लेखक को पूरी तरह सही सिद्ध करते हैं।
विकीलीक्स के संदर्भ में यदि भारत की कूट्नीतिक स्थिति की समीक्षा की जाये तो हम इसे पोखरण विस्फोट से पूर्व और उसके बाद अमेरिका के ट्रेड सेंटर पर हुए आक्रमण के बाद उत्पन्न हुई स्थिति के रूप में बाँट सकते हैं। 1998 में पोखरण में परमाणु विस्फोट के बाद विश्व पटल पर भारत एक सामरिक शक्ति के रूप में उभरा जिसने कि अपने ऊपर लगाये गये तमाम आर्थिक प्रतिबंधों के बाद भी अपनी स्थिति को सँभाल कर विश्व और विशेष कर पश्चिमी विश्व को यह जता दिया कि वह एक स्वतंत्र राष्ट्र है जो कि अपने राष्ट्रीय हितों के आधर पर निर्णय करता है और इस प्रक्रिया में कोई भी निर्णय या कीमत उसके लिये स्वीकार्य है। भारत के इस आग्रही स्वभाव ने भारत के प्रति पश्चिमी विश्व के दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन ला दिया और इस विस्फोट के बाद कारगिल में भारतीय सेना की दुर्गम्य क्षेत्रों में शत्रु सेना पर मिली विजय ने एक बार फिर भारत की सामरिक शक्ति का लोहा मानने को विश्व को विवश कर दिया। इन दो घटनाओं के उपरांत वर्ष 2001 में हुई घटनाओं ने कहीं न कहीं हमारी इस बढत को घटा दिया। अमेरिका पर हुए इस्लामी आतंकवादी आक्रमण के बाद विश्व की राजनीति ने नया मोड लिया और पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद और वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के प्रति एक नयी जागरूकता विश्व में देखने को मिली परन्तु 1993 से ही इस्लामी आतंकवाद की छाया झेल रहे भारत को विश्व मंच पर यह कहने का अवसर मिला कि तथकथित इस्लामी आतांकवाद की जडें कहीं न कहीं पाकिस्तान में ही हैं और यदि विश्व इस आतंकवाद को नष्ट करने के प्रति गम्भीर है तो उसे पाकिस्तान के प्रति कठोर कदम उठाने होंगे।
अमेरिका सहित समस्त पश्चिमी देशों के सम्बन्ध में हमें एक बात ध्यान रखनी चाहिये कि इन देशों ने अपनी राज्य व्यवस्था और कूट्नीति की विरासत रोमन साम्राज्य से प्राप्त की है और ये देश अब भी रोमन साम्राज्य की इस अवधारणा पर चलते हैं कि जो देश सामरिक दृष्टि से सक्षम है उसे अपना सहयोगी बना लो और जो सामरिक रूप से दक्ष नहीं है उसे एक बोझ मानकर चलो।
जब हम आधुनिक सम्बन्ध में अपनी कूट्नीतिक स्थिति को 2001 के बाद के काल में आँकते हैं तो हमारी यही कमजोरी प्रकट होती है। वर्ष 2001 के बाद कहीं न कहीं भारत की नीति इस बात पर केंद्रित हो गयी कि अब इस्लामी आतंकवाद एक अंतराष्ट्रीय विषय बन गया है और इसी मानसिकता के इर्द गिर्द पश्चिमी शक्तियाँ और विशेष रूप से अमेरिका हमारी इस समस्या का समाधान करते हुए इस बात पर सहमत हो जायेगा कि पाकिस्तान इस आतंकवाद की जड है और उसके विरुद्ध हमें एकजुट होना चाहिये।
2001 के बाद से लेकर आज तक लगभग एक दशक से हमारे नीति निर्धारक इसी नीति का अनुपालन करने में लगे हैं और वीकीलीक्स के हाल के खुलासे से यह स्पष्ट है कि इस नीति के चलते इस एक दशक में पश्चिमी विश्व के समक्ष हम उपहास और विनोद का विषय बन चुके हैं।
भारत की विदेश नीति और सामरिक नीति के बारे में स्वतंत्र निर्णय लेने का उसे पूरा अधिकार है और इस क्रम में यदि कारगिल युद्ध के दौरान नियंत्रण रेखा नहीं पार करने का निर्णय लिया गया , संसद पर हुए आक्रमण और फिर कालूचक पर हुए आक्रमण के बाद भी सेना को युद्ध की स्थिति मं लाकर भी युद्ध न करने का निर्णय लिया गया जिसके तत्कालीन कारण गिनाये जा सकते हैं लेकिन यह स्पष्ट है कि इन अवसरों पर जो भी निर्णय लिया गया उसके आधार पर भारत की सामरिक स्थिति को राजनीतिक अनिर्णय के अधीन मान लिया गया और जो भी रही सही कसर थी उसे 2008 मे मुम्बई पर हुए आक्रमण के बाद पूरा कर दिया गया जब भारत सरकार ने इस आक्रमण के दोषियो को सजा दिलाने से लेकर पाकिस्तान को इसके लिये दोषी ठहराने की पूरी प्रक्रिया मे अमेरिका को एक पंच के रूप में शामिल कर इस पूरे विषय में पाकिस्तान के साथ अपने सम्बंधों को वरीयता न देकर अमेरिका और पाकिस्तान के सम्बन्धों और अमेरिका के हितों को वरीयता दी और उसका परिणाम आज विकीलीक्स के माध्यम से हमारे समक्ष है कि किस प्रकार हमारी सरकार ने जनता को बरगलाया कि समस्त विश्व इस घटना के बाद हमारे साथ है जबकि सभी पश्चिमी शक्तियाँ छुप छुपा कर पाकिस्तान का सहयोग कर रही थीं यहाँ तक कि अमेरिका ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आई एस आई को अपना सहयोग जारी रखा।
विकीलीक्स के इस खुलासे के बाद एक बार फिर हमारी वर्तमान सरकार द्वारा अंधाधुंध तरीके से अमेरिका के साथ एकतरफा सम्बन्ध बनाये जाने की नीति पर पुनर्विचार करने का अवसर आ गया है। जिस प्रकार कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत के लोगों की भावुकता का लाभ उठाकर भारत की संस्कृति को स्पर्श करते हुए भाषण दिया और भारत को संयुक्त राष्टृ संघ में स्थायी सद्स्यता की बात की लेकिन विकीलीक्स ने हमें बता दिया कि अमेरिका भारत की इस आकाँक्षा को लेकर भारत का कितना उपहास करता है। इसका अर्थ कदापि नहीं है कि हमें अमेरिका के साथ अपने सम्बन्ध बढाने नहीं चाहिये क्योंकि वामपन्थियों की भाँति केवल और केवल अमेरिका विरोध भी उचित नहीं है लेकिन क्या यह उचित है कि हम अपने सारे पत्ते विश्व के समक्ष खोल कर अमेरिका के मित्र के बजाय उसके गठबंधन में आ जायें जिसमें कि अब भी उसके लिये पाकिस्तान अधिक मह्त्व का है और वह एक ओर इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान से सहायता ले रहा है जो कि इस समस्या के कारण में से है।
हमने बराक ओबामा का जो स्वागत और प्रोटोकाल दिया क्या वही जुनून और स्वागत फ्रांस, रूस और चीन के शासनाध्यक्षों का हो पायेगा। ऐसा नहीं होगा जोकि हमारी कूटनीतिक अपरिपक्वता को दर्शाता है। आज की विश्व राजनीति में अमेरिका के सुपर पावर का रूतबा घट रहा है और विश्व में अनेक शक्तियाँ क्षेत्रीय शक्तियों के रूप में अपना आधार बढा रही हैं जिनमें रूस, जर्मनी , तुर्की, ईरान, ब्राजील, चीन. इजरायल , जापन और भारत मुख्य हैं। इनमें से अपनी भू राजनीतिक प्राथमिकता के आधार पर हमें नये मित्रों का चयन करने की ओर गम्भीरता से विचार करना चाहिये।
आज भारत की प्राथमिकता में आतंकवाद से निपटना और नयी विश्व रचना में स्वयं को विश्व पटल पर स्थापित करना है इसके लिये हमें संयुक्त राष्टृ संघ में स्थायी सदस्यता से अधिक अपनी रणनीतिक और कूट्नीतिक स्थिति को सशक्त करना आवश्यक है। आज की स्थिति में जिस प्रकार चीन न केवल समुद्री सीमाओं से वरन व्यापारिक स्तर पर भी भारत को घेर रहा है उसके साथ ही ईरान, तुर्की और खाडी के देशों के साथ जिस प्रकार चीन अपने सम्बंध मजबूत कर रहा है वह भारत के लिये एक नयी चुनौती है। ईरान के साथ भारत के अत्यंत मधुर सम्बंध रहे हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उसका इस्लामी विश्व का नेतृत्व करने की आकाँक्षा पाल कर घोर वामपन्थी देशों जैसे लैटिन अमेरिका के देशों और तेजी से सेक्युलर छवि त्याग कर इस्लामीकरण की ओर अग्रसर तुर्की के साथ नयी विश्व रचना की अपील के आधार पर गठबंधन खडा करने की नीति के प्रकाश में हमें ईरान को नये सिरे से देखने की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति में भारत की एक विश्व स्तर पर एक बडी भूमिका बनती है और अब उसे निर्गुट की स्थिति से बाहर आकर रूस, जर्मनी, जापान , इजरायल जैसे देशों के साथ मिलकर अमेरिका द्वारा खाली किये जा रहे स्थान को भरने की दिशा में गम्भीरता से सोचना चाहिये। वर्तमान विश्व राजनीति में इस्लामवादी वामपंथी गठबंधन एक बार फिर अंधअमेरिका विरोध को आधार बनाकर बनाया जा रहा है जो कि एक फासीवाद और कम्युनिज्म के बाद नयी चुनौती बन सकती है, लेकिन इसके दुष्परिणाम उन सभी देशों को अधिक भुगतने होंगे जो नयी उभरती शक्ति हैं और उदारवादी लोकतांत्रिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मे विश्वास करती हैं।
विकीलीक्स के खुलासों से स्पष्ट हो गया है कि जब तक भारत अपने दम पर अपनी समस्याओं का समाधान नहीं करता और आतंकवाद के विरुद्ध अपने बल पर विजय प्राप्त करके नहीं दिखाता हमारा सुपर पावर का सपना एक आयातित शब्दावली जैसा रह जायेगा जो वाग्जाल या बुद्धि विलास के लिये तो सही रहेगा लेकिन वास्तविकता के धरातल पर यह अन्य शक्तियों के लिये उपहास और विनोद का विषय ही रहेगा।

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