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Monday, January 31, 2011



दर्पण – यथार्थ का

मेरी आँखों के सामने था दर्पण
गुमान कर रही थी मैं अपने रूप पर
अपने मृगनयनी होने पर
अपने कुसुम कपोलों पर
कमल की अधखुली पंखुरी जैसे होठों पर
सूर्य की तरह दीप्त्तिमान अपने उजले गोरे रंग पर
और कलाईयो के सुंदर होने पर भी हुआ मुझे गुमान !

इसी गुमान में
एक हल्की सी मुस्कराहट खेल जाती थी मेरे चेहरे पर
जो कभी लाज की लाली मुझमें भर देती थी
तो कभी मेरी आँखों में चमक

मैं खोई रही हसीन विचारों में
और पढ़ने लगी अखबारों में
इन खबरों को:-

“ मंत्रियो के घोटालों की
कश्मीर के उग्रवादियों की
पाकिस्तान और चीन की चालो की
बढती महंगाई और घटते स्तर की
बसों की टक्कर और दुर्घटनाओं की
चोरी, डकैती, मारामारी की
बलात्कारों और दहेज के कारण जलाई जाने वाली
बहुओं की बढती संख्या की
फैशन शो में बढ़ती अशलीलता की “
इन खबरों को पढ़ कर
उतरने लगा मेरे सौंदर्य का नशा !

दुःख हुआ मुझे
अपने मृगनायेनो पर
कुसुम कपोलों पर
कमल की अधखुली पंखुरी जैसे होंठो पर
गोरे रंग और कलाईयो की सुंदरता पर

दुःख हुआ मुझे
कि ये नयन पढ़ते हैं रोज इन्हीं खबरों को
मगर रोक नहीं पाते इन्हें अपनी आँखों के सामने होते हुए
ये होंठ सिल जाते हैं जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने को
और बुराई को चुपचाप गले के नीचे उतार जाने को

दुःख हुआ मुझे
गोरी चमड़ी का
क्योंकि इस गोरी चमड़ी के भीतर
छुपी हैं काली आत्माएं
जो गंगा की पवित्रता को
विष में परिवर्तित करने को रहती हैं आतुर
और ये हाथ नहीं कर पाते कुछ
अन्याय और अत्याचार के सम्मुख

दुःख हुआ मुझे
और लाज से लाल हुए मेरे गालों पर
छा गया पीलापन
आँखों में आंसु
होंठो में फड़फड़ाहट
और
दिल में हाथों के कटे होने का एहसास

गुमान से भरा मेरा चेहरा
हो गया आभाहीन और निस्तेज

मेरी आँखों के आगे
फिर था दर्पण
यथार्थ का दर्पण
जो दिखा रहा था झलक समाज की
उस समाज की
जिसकी मैं थी एक इकाई
और उसे देखकर
हुआ मुझे कुरूपता का एहसास !!


मंजु ऋषि



1 comment:

Sanjay Prashant said...

मंजु ऋषि जी की यह कविता काबिल-ए -तारीफ है