डा० मधु चतुर्वेदी जिन्होंने वेदों पर पीएचडी की है, ने अपनी सहेली से मिलन की सहजता की अभिव्यक्ति बड़ी अनुपमता से प्रस्तुत की है कि कहीं मन की मन में ही न रह जाये अपितु मन मन से मिलकर मन-मन हो जाये। क्योंकि उस मन की उडान को कोई परिधि नहीं बाँध सकती है। उसके मन में अपने प्रिय से मिलने की अटूट लालसा है। इस अप्रितम उपलब्धि के लिए मैं उन्हें बार-बार बधाई देता हूँ और उन्हें सादर प्रणाम करता हूँ । उनकी ये पंक्ति बड़ी पसंद आयीं --
उड़ते सौरभ को क्या कोई, परिधि बाँध पाई है,
गंध प्रीत की पतझर मेंभी मधु ऋतु ले धाई है,
पुन्य यहीं पर तुझे खोजने के काँटों का वन है ,
मन, तुझसे मिलने का मन है।
भगवान सिंह हंस
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