
मै तो कोई स्वामी महंत या दैवी-पैरोकार भी नहीं हूं
फिर भी मैं हूं
अपनी संस्कृति को तिल-तिलकर नष्ट होते देखती
नम आंख हूं
मैं गांधी,सुभाष और भगतसिंह के सपनों की राख हूं
विवेकानंद की आत्मा हूं
भारतमाता की पुकार हूं
हां।मैं राष्ट्र की अस्मिता का पहरेदार हूं
फक्कड हुं,फटेहाल हूं
शोषक-शासन तंत्र के लिए
हमेशा से एक बवाल हूं
दुखियों की आह हूं
लाचारों के लिए राह हूं
मगर आप मुझे अब भी नही
पहचान पायेंगे
क्योंकि,आपकी आंखों पर तो
भौतिकता का परदा पडा है
जो दीवार बनकर हमारी और आपकी
जान-पहचान के बीच खडा है
इसलिए,आप दिन के उजाले मे भी मुझे पहचान नहीं पायेंगे
आप तो सिर्फ मोटे बैंक बैलेंस
और झंडे-बत्ती वाले विशिष्ट लोगों को जानते हैं
आप आदमी को कहां पहचानते हैं
आप मुझे नहीं जानते?
यह
आपका और इस देश का दुर्भाग्य है
क्योंकि मैं तो अंधेरे मे भी चमकने वाला रवि हूं
अरे,मैं सदियों से कुंभकर्णी-नींद मे सोये हुए
इस देश को झकझोर कर जगाने कि अनथक कोशिश करता हुआ
कवि हूं।
अरविंद पथिक
९९१०४१६४९६
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