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Friday, June 3, 2011

एक नई रचना "पडौसी "

जय लोक मंगल के सभी मित्रों को मेरा नमन
कहते हैं न कि एक तो गिलोय कडवी दूजे नीम चढ़ी सो अपना भी वही हाल है एक तो व्यस्तता अधिक दुसरे इस
कंप्यूटर कि विधा में हाथ कमजोर ,इसी लिए इतने दिनों के बाद यह मुलाक़ात हो रही है तो चलिए आपकी नाराजगी को दूर करते हैं एक नई रचना से
पडौसी
मैं पडौसी को नहीं
पडौसी के घर को जानता हूँ
भला हो
उसके द्वार पर लगे नामपट्ट का
जिससे चलता है पता
कि वह किस जात का है

जब मैं इस शहर में आया
तो मैंने भी
अपने दरवाजे पर
अपना नहीं ,अपनी जात का बोर्ड लगवाया
बोर्ड इस लिए कि वह
नामपट्ट से बड़ा होता है
और पडौसी को
यह अहसास दिलाना जरूरी था
कि मैं तुझ से कम नहीं
तू मुझे नहीं जानता
तो मैं भी तुझे नहीं

यहाँ आकर पता चला
कि पडौसी का पडौसी को न जानना
यहाँ कि संस्कृति है
इससे एक बड़ा लाभ यह होता है
कि वक्त पड़ने पर पडौसी
आराम से कन्नी काट जाता है
और घर के सबसे पिछले कमरे में
बज रहे रेडियो को धीमा कर
या फिर कर
टी वी को साइलेंट मोड़े पर
पडौसी की अर्थी उठने का इन्तजार करता है

दुनियादारी भी जरूरी है
इस लिए वह
ऑफिस जाते हुए
कुछ मिनट के लिए
मरघट जाना नहीं भूलता
अफ़सोस जता कर
यह बताना नहीं भूलता
की वह आदमी की जात का है

सुना है की यह शहर की कल्चर है
पर न जाने क्यों , मैं
सोचता रहता हूँ
की यहाँ का बाशिंदा
आदमी है या वनचर है
वैसे इस तरह का चलन
नेताओं के लिए बड़ा हितकारी है
क्योंकि उनका
आदमी से अधिक
उसकी जात का जानना बहुत जरूरी है
यही तो वह तुरप का इक्का है
जो हर चुनाव पर भारी है

ढेर लगे ताश के पत्तों पर
जब यह इक्का पड़ता है
तो सारे पत्ते एक तरफ चले जाते हैं
नेता को गद्दी पर बिठाते हैं
फिर ऐसे नेता देश चलाते हैं
न जाने वह दिन कब आयेगा
जब हर घर के दरवाजे पर
जात का नहीं
आदमी का नाम लिखा जाएगा
वह महज एक वोट नहीं
आदमी कह लाएगा
और तब मैं भी
गर्व से कह सकूंगा
कि मैं पडौस के घर को नहीं
पडौसी को जानता हूँ

बी एल गौड़ .

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