जूते
के बूते
पंडित सुरेश नीरव
जूते भी बड़ी अजीब
चीज़ हैं। ये पैदा तो पैरों के लिए होते हैं मगर जुगाड़ लगाकर पहुंच पगड़ी के देश
में जाते हैं। ठीक उन भारतीयों की तरह जो पैदा तो इंडिया में होते हैं मगर
नागरिकता अमेरिका की पाने को हमेशा ललचाते रहते हैं। और कुछ हथिया भी लेते हैं। अपने
मकसद में ये फेल बहुत कम होते हैं। क्योंकि या तो जूते के जोर पर या जूते चाटकर
समझदार लोग अपना काम निकाल ही लेते हैं। सिर पे धरा जूता और अमेरिका में रह रहा भारतीय
बराबर के इज्जतदार होते हैं। जूते का पराक्रम है ही अदभुत। जूता शक्तिमान है। जूते
की बड़ी शान है। कभी कृषिप्रधान हुआ करता था भारत आजकल बाकायदा जूता प्रधान है।
जहां हर तरह की प्रधानी जूते के ज़ोर पर ही मिलती है। मोहरें-अशर्फी,आना-पाई सब
बंद हो गए मगर जूते का सिक्का आज भी मार्केट में बरकरार है। वह कल भी था और कल भी
रहेगा। सतयुग में राजसिंहासन पर काबिज रहनेवाला चमत्कारी जूता आज पंचायत से लेकर
विधान सभा,राज्यसभा से लेकर लोकसभा तक अपना जलवा बनाए हुए है। सारे भारत में जूते
का अखंड महोत्सव चल रहा है। जहां
जूते में दाल बंट रही है वहां लोग
विनम्रतापूर्वक जूते खा रहे हैं। कहीं कोई जूते मार रहा है तो कहीं कोई जूते गांठ
रहा है। यत्र-तत्र-सर्वत्र बस जूते-ही-जूते। एक बार मिल तो लें। अपुन के इंडिया
में जूता इज्जत का बिंदास टोकन है। और अगर देशी पैर में विदेशी जूता हो फिर तो
सोने पे सोहागा। कुछ समय पहले हमारे देश में राजकपूर नाम के एक सज्जन हुए। सज्जन
वे इसलिए थे क्योंकि उनका जूता जापानी था। इत्तफाक से दिल उनका हिंदुस्तानी था। लेकिन
शौहरत उन्हें दिल ने नहीं इंपोर्टेड जूते
ने ही दिलवाई। जूते की इज्जत का आलम तो ये है कि इब्ने-ब-तूता तो बगल में जूता लिए
फिरते थे और खालिस जूते की चुर्र-चुर्र की बदौलत ही इंटरनेशनल हो गए। जूते से
सिर्फ इज्त ही हासिल नहीं होती किसी इज्जतदार को जूता मारने से स्थानीय आदमी भी अखिल
भारतीय हो जाता है। इसलिए यश की मनोकामना लिए उत्साही लोग सभा में, सम्मेलन में जहां उचित
मौका मिलता है अपनी जूतंदाजी के जौहर दिखाने से नहीं चूकते। ये बात दीगर है कि इन
अभागों के निशाने हमेशा चूक जाते हैं। क्योंकि हमारे देश में जूतंदाजी का कोई
कोचिंग इंस्टटीट्यूट तो है नहीं। बेचारे अपनी जन्म जात प्रतिभा के बल पर ही ये जूतंदाज अपना कौशल और पराक्रम दिखाते हैं।
मेरा विनम्र सुझाव है कि समाजसेवी संस्थाओं को समाज कल्याण की इस गतिविधि को
बढ़ावा देने के लिए जूतामार प्रशिक्षण केन्द्र पंचायत स्तर पर खोलने चाहिए। एक
नाचीज़ जूता अस्त्र भी है और शस्त्र भी। जूता श्रंगार भी है और धिक्कार भी। जूतों
की माला पहनाकर कैसे किसी का सार्वजनिक श्रंगार किया जाता है इस महीन लोककला से
भला कौन भारतीय परिचित नहीं होगा। जूते की माला के लिए फूल कहां से आएं भक्तों ने
मंदिरों से और सालियों ने शादी में जीजा के जूते चुराकर इस समस्या का भी समाधान कर
दिया है। जूतालॉजी के मुताबिक खास नस्ल के लोगों को जूते मारने से ही होश आता
है।मगर संवेदनशील लोगों को जूते सुंघाने की होम्योपेथिक डोज ही बेहोशी से होश में
लाने के लिए पर्याप्त होती है। यह जूते का ही पराक्रम है जिसके बूते शोले का टुंडा
ठाकुर गब्बर की जान ले लेता है। तब कहीं जाकर जूते राहत की सांस लेते हैं।
रोमांटिक मूड में यह शर्मीला जूता पहननेवाले को काट भी लेता है। एक पुच्ची-सी
लवबाइट। यचमुच जूते की लीलाएं विराट हैं। जूता अस्त्र है,शस्त्र है,भोज्य है,भोग्य
है। दवा है। जूते का बिग जलवा है। बस सही समय पर जूते के उपयोग करने का आदमी को
हुनर होना चाहिए। ।। इति-श्री-जूता-कथा।।
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