जय लोक मंगल के मेरे मित्रो ! एक लम्बी विदेश यात्रा के कारण काफी दिन आप सबसे दूर रहा , अब आज एक नई
कविता के साथ हाज़िर हूँ
आदमी का कद
आदम का कद
न छोटा हो न बड़ा हो
मझोला हो
ताकि वह
थोड़ा झुक कर
थोड़ा उचक कर
दोनों ओर
सुविधा से वार्तालाप कर सके
दूसरों को भी लगे
कि वह , वास्तव में आदमी है
आदमी का पेट
बाहर से छोटा
भीतर से मोटा हो
ताकि वह
इसकी-उसकी
और "उसकी " बात
आसानी से पचा सके
वैसे भी क्या मिलता है
दूजे आँगन पीर बहा कर
या कविता के सात स्वरों में गा कर
केवल जग हसाई के
प्यार तो कर्पूर का परियायवाची है
उड़कर , चन्दन कि गंध सा
समा जाता है
नदिया की कल-कल में
वर्षा कि रुनझुन में
बादल के नगाड़े में
कानन में कुंजन में
पर्वत कि गुफाओं में
लौट- लौट आता है
पुरवा और पछवा हवाओं में
आदमी को चाहिए
कि वह इसे , उड़ने न दे
आत्मसात कर
अम्रत सा पीले
और जीवन का शेष भाग
मुस्करा कर जी ले
इससे दो लाभ होंगे
एक तो वह
कस्तूरी मृग बनेगा
पर, दोड़ेगा नहीं
आदमी के नाते यथावत रहेगा
और दूसरे
लोग यह कहेंगे
कि वह , वास्तव में आदमी है
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