बचपन में हुड़दंगी बालक के तौर पर पहचान थी, बड़े होने के साथ गंभीर होते गए। वे चाहते थे कि भारत स्वाधीन हो। ब्रिटिश देश से बाहर निकलें। 1919 में हुए जलियांवाला बाग नरसंहार से व्यथित हुए। 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया। जज ने उनसे पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है तो उन्होंने कहा "आज़ाद", पिता का नाम- "स्वाधीन", तुम्हारा घर- "जेलखाना"। इस पर आज़ाद को बेंत मारने की सज़ा दी गई। शरीर से निकले खून ने आज़ादी के रंग को और गहरा कर दिया। हर बेंत के साथ वे चिल्लाए- "महात्मा गांधी की जय"। लेकिन चौराचौरी की घटना के बाद गांधी जी ने असहयोग वापस ले लिया। आज़ाद को कष्ट पहुंचा और उन्होंने कांग्रेस छोड़ हिन्दुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ (एचआरए) ज्वाइन कर लिया। काकोरी कांड में आज़ाद को पुलिस पकड़ नहीं पाई। एचआरए काफी दिनों तक असक्रिय रहा। 1925 में उन्होंने भगत सिंह के साथ मिलकर हिन्दुतान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का गठन किया।
आज़ाद हमेशा आज़ाद ही रहे। 27 फरवरी 1931 को जब वे अपने दो क्रांतिकारी साथियों के साथ अल्फ्रेड पार्क में योजना बना रहे थे तो मुखबिरी के आधार पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया और फायरिंग कर दी। आज़ाद की टांग में गोली लगी। आज़ाद ने अपने दोनों साथियों को भाग जाने को कहा। वे खुद लड़ते रहे। उनकी निशानेबाजी से घबराए पुलिसवाले उनके पास नहीं आए और मुठभेड़ चलती रही। जब आज़ाद के पास आखिरी गोली बची तो उन्हें आभास हो गया कि पुलिस उन्हें पकड़ लेगी। उन्होंने गोली अपने ही सिर पर दाग दी और अमर शहीद का दर्जा पा गए।
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