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Thursday, July 21, 2011


डॉ.मधु चतुर्वेदी-षष्टिपूर्ति
नाद-श्रवण का मंजुघोष हैं मधु चतुर्वेदी
पंडित सुरेश नीरव
 यदि मुझे किसी सृजनशील,यौगिक-युयुत्सु के अनवरत चिन्मय-वाष्पीकरण के संघनन से प्राप्त अनुभूति-आसव को, जोकि आपाद-मस्तक कविता-स्नात हो कोई नाम देने को कहा जाए तो में उस आसव को डॉ.मधु चतुर्वेदी नामक संज्ञा से अलंकृत करना चाहूंगा। कृति-पुण्यशीला धरती का वह प्रयाग जहां अध्यात्म-साहित्य-और संस्कृति की त्रिवेणी बहती है। बहुपंथीन सारस्वत साधना की ऐसी अधीती मनीषा ,जिसके रचनालोक में भावना की कर्पूर-धूलि से सिक्त,दृग-संतुष्ट, अनादिनिधनं अक्षर चातुर्दिक रस-प्रसन्न होकर अपनी मधुकांति अभिराम-अविराम बिखेरते रहते हैं। कविता की ऐसी अप्रतिम आक्षरिक श्रव्यता और वर्णिक दृश्यता जहां वेदना व्यथा न होकर संवेदना और संवेदना सम-वेदना बन जाती है। वेदन का अर्थ है अपनी बात को ज़ोर देकर कहना। और फिर जब यह वेदन राहतकारी सहानुभूति-सा लगने लगे तो वेदन संवेदना हो जाता है। और जब यह विदेहित वेदन सुनने और पढ़नेवाले को अपने-जैसा लगे तो वही वेदन सम-वेदना बन जाता है। शब्द-अर्थ की यह दुर्लभ और सहेतुक पारस्परिकता ही कविता की शोभा है,शक्ति है और संपदा है। यही शब्द की अणिमा और महिमा सिद्धियां हैं। और डॉ.मधु चतुर्वेदी को ये सिद्धियां जन्म जात प्राप्त हैं। इसलिए डॉ.मधु चतुर्वेदी के बारे में कुछ व्यक्तिगत लिखना या कहना प्रकारांतर में शब्द के वांङ्गमय के अनहद की अनुगूंज को सुनना है। यह एक तरह से व्यष्टि के भीतर समवष्टि का स्फोट है। इस कलात्मक स्फोट की झंकृति से अनछुआ कैसे रहा जा सकता है। नाद-श्रवण का मंजुघोष है मधु चतुर्वेदी का व्यवहार और विचार। इस मंजुघोष में निहित हैं-भावविह्वल सुखमूल संवेदनाएं और बुद्धमूल संस्कार। जो अपनी सर्वांगपूर्णता के साथ सृजन-सृष्टि का निमित्तकारक और उपादान दोनों कारक बनते हैं। स्वाभाविक है कि जो अपने अंतः करण और बाह्यकरण दोनों में मधुमय हो उसकी उपस्थिति से समग्र परिवेश ही मधुमय हो जाता है। धरती,अंबर,जल,वनस्पति सब मधुसिक्त। वेदों की सनातन गुहार-मधु वाता रितायते अपने अस्तित्व में उतरती है। जिसकी मधुमय अभिव्यक्ति में शब्दों के वंदनवार कभी ग़ज़लीय झांझर की झंकार से झंकृत होते दिखते हैं तो कभी गीत के लावण्य-लोच के साथ अधरों पर कोणार्क हंसी और ऋषिचेतना की चूड़ांत चमक के साथ धूप और छांव दोनों को एक साथ स्वस्ति गायन सिखाते हैं। गीता में कृष्ण ने अर्जुन से कहा है- हे पार्थ। सामान्य लोगों के कहे शब्द अर्थ का अनुसरण करते हैं। और विलक्षण लोगों के कहे शब्दों का स्वयं अर्थ अनुसरण करता है। डॉ.मधु चतुर्वेदी-की रचनाओं से गुजरते हुए यह कथन बड़ा पारदर्शी होकर सामने आता है। एक बात और...कुछ लोग सृष्टि शून्य रचनाएं करते हैं और कुछ शून्य से भी सृजन-सृष्टि का हुनर जानते हैं। मधु उन्हीं शब्द साधकों में से एक हैं। जो सत् के चित् में भी आनंद तलाश लेती हैं। जब कभी मेरे मन-मंदिर के उजले आंगन की मौन-नीरव घंटियां अपने आप बजने लगती हैं तो मैं जान जाता हूं कि हवा का कोई झौंका मधु की गीतमुखी रूह को छूकर आया है। ऐसी सारस्वत-सात्विक मैत्री हमारी परस्परता है और समवेत समझ भी। सृजन के इस माधुर्य के कालजयी हो जाने की मैं उच्चमान प्रार्थनाएं उस प्रभु से करता हूं जो व्यापक होकर विभु है,स्वयंभु है और मेरे भीतर बैठकर जो अधिभु है। तथास्तु।
आई-204,गोविंदपुरम,ग़ज़ियाबाद-201001
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