आदरणीय मान्यवर श्री नीरवजी ने अनशन के बाद का प्रलाप पर देश सेवा हमारा खानदानी पेशा है, के जरिये एक सटीक एवं सच्चा हास्य-व्यंग्य किया है जो काबिले-तारीफ़ है. नेता जो दूध-से धुले, बेदाग सफ़ेद खद्दरधारी चुप्पी में सहते हुए प्रहारों की धमाकेदार चोटों से दर्द की टीस आखिरकार कब तक दिल मसोस-मसोस कर जीभ नहीं निकलते या कब.तक नही बोलते, सहनशक्ति की अपनी एक हद भी होती है, उल्टा-सीधा बहुत कुछ सुना, झुक गए वक्त के सामने, टल गया समय. आखिरकार ठहरे तो नेता ही. एक भीड़ जुटा ली तो अपने आपको भारत का निर्माता ही समझने लगे ये सडकछापिये. नेता तो हम हैं और हमारे बच्चे जो जन्म से ही देश-सेवाभाव हमारी नसों में कूट-कूट कर भरा रहता है. इन नौटंकियों से काहे का डर. हम तो तुम्हें अभी बता देते, पर तुम्हारा वक्त ठीक था क्योंकि इलेक्शन काफी दूर है. श्री नीरवजी के शब्दों में व्यंग्य देखिये --
जनता को अपनी औकात में रहना चाहिए। ये सरासर गुंडागर्दी है कि कुछ सड़किए भीड़ जमा करके एक अदद अनशन की दम पर अकड़कर हमें हुक्म दें कि फलां बिल पास करो,फलां विधेयक लाओ और अभी लाओ। किसने दे दिया इन्हें ये अधिकार। अरे इनकी औकात बस इतनी ही है कि ये हमें वोट दें,हमें जिताएं और अगले पांच साल तक हमारे सामने पूंछ हिलाएं। ससुर हम पर ऑर्डर झाड़ेंगे। जनसेवक हम अपने को क्या कह दिए, ये तो हमारे सिर पर चढ़कर ही भांगड़ा करने लगे हैं। अन्ना की औलाद कहीं के। सर पर टोपी लगा ली और कहने लगे कि मैं अन्ना हूं। अरे राजनीति
आखिर राजनीति है। कोई बच्चों का खेल नहीं।
भगवान सिंह हंस
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