आदरणीय श्री नीरवजी! आपका कुंए नेकी का डस्टबिन नामक हास्य-व्यंग्य बहुत ही अच्छा लगा| पढ़कर मजा आ गया| पंडितजी को बहुत-बहुत बधाई | प्रणाम | बाकई आज व्यवसायीकरण और गैरजिम्मेदारी
निभाती राजनीति ने नेकी के लिए जगह ही कहाँ छोड़ी है | और तो और कहीं कहाँ कूंए उस नेकी के लिए एक आशियाना मिल जाते थे वे सब भी एक कचरागृह बना दिए है. एक तो नेकी कहीं है ही नहीं और कहीं मिल भी जाए अपने दर-किनारे तलाशती तो वह भी एक बदबूदार डस्टबिन में पड़ी नजर आती है.| साहब! कितना सटीक यह हास्य-व्यंग्य है और इस कतरदारसमय की युगीन कुंठा पर खरा उतरता है| उस नेकी को तलाशिये , उसको कूड़ा मत बनने दीजिये| यह ही हमारे जीवन का जीवंत अवदान है | पंडितजी के पारिखीय शब्द मन को झुनझुलाते हुए देखिये-
जो कुएं कभी लोगों की प्यास बुझाया करते थे आज वो खुद प्यासे दम तोड़कर कचरादान बन चुके हैं। अब सरकारी कूप मंडूक फाइलों में कुआं खोदते है और नेकी कुएं में नहीं अपनी जेबों में डालकर कुओं के प्रति अपना अहोभाव जताते रहते हैं। मध्यवर्ग के लोग अपनी जरूरतों के मुताबिक रोज़ कुआं खोदते हैं और रोज़ पानी पी-पीकर अपनी किस्मत को कोसते हैं। कुएं और आम आदमी की किस्मत की इबारत अब एक-सी हो गई है। मिनरल वाटर के आतंकी हमलों के आगे सरकारी व्यवस्था की तरह निसहाय और निरीह कुओं को अब नेकी का डस्टबिन न बनाकर उसे पॉलीथिन के सुरक्षाकवच में दुबकाये जाने की सामूहिक कोशिशें मुस्तैदी से जारी हैं। हम उसे लावारिस और असुरक्षित हालत में भला कैसे छोड़ सकते हैं। आखिर हमारा भी तो कोई फर्ज बनता है।
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