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Sunday, January 29, 2012

कीचड़ उचालते हैं,कीचड़ में रहनेवाले



श्री रजनीकांत राजू जी
आप लगातार निष्ठापूर्वक समारोहों की तस्वीरें जयलोकमंगल  पर डाल रहे हैं। आपका यह सहयोग ब्लॉग के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
 और कोई लिखे या न लिखे मैं तो लिख ही डालूंगा। आपको हार्दिक धन्यवाद। आपकी टिप्पणी पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। इसलिए पुनः धन्यवाद।
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श्री अरविंद पथिकजी,
रबड़ की रीढ़वाली आपकी रचना समाज के उन तमाम मौका परस्तों को बेनकाब करती ही जिनका धर्म येन-केन-प्रकारेण सिर्फ कामयाबी हासिल करना होता है और ये मौकापरस्त किसी भी अवसर को किसी भी कीमत पर हथियाना ही अपनी जिंदगी का मकसद मानते हैं। और ऐसे ही टिटपुंजिए आज साहित्य के हेवीवेट भी बनते जा रहे हैं। इनके लिए लतीफे और मंत्र बराबर हैं। हिंदी की दुर्गति के यही रीढ़हीन केंचुए जिम्मेदार हैं। वक्त के जूतों से ये कल जरूर कुचले जाएंगे।
तुम्हारी चाल कैसी ?
ढाल कैसी ढंग कैसा?
तुम्हारे रूप यौवन पर फबेगा रंग कैसा?
ना जिनके मूल्य कोई वे हमें सिखला रहे हैं
रबड की रीढ वाले लोग बढते जा रहे हैं
गीत गायें या लतीफे हम सुनायें
फैसला यह मूर्ख औ ढोंगी करेंगे
ओजधर्मीं स्वर सहम कर मौन होंगे
मंच पर नर्तन मनोरोगी करेंगे
काले मेघ काव्याकाश पर मंडरा रहे हैं
रबड की रीढ वाले लोग बढते जा रहे हैं।
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डॉक्टर नागेश पांडेजी.
आपकी रचना पढ़कर बहुत आनंद आया। और मन हुआ कि अपनी प्रतिक्रिया से आपको अवगत कराऊं। यकीनन ओछे लोग जो होते हैं वे अपनी औकात भूलकर दूसरों पर कीचड़ उछालते हैं। ऐसे कुत्तों की कमी नहीं जो हाथियों पर भौंककर अपना पराक्रम जताते हैं। मगर हाथी को क्या फर्क पड़ता है। मैंने इसी बात पर एक शेर कहा है
कीचड़ उछालते हैं कीचड़ में रहनेवाले
बदलोगे कैसे फितरत तूम फूल हो कमल के
वो और हैं जिन्होंने गिरवीं रखा कलम को
नीरव बने न भौंपू अब तक किसी भी दल के।
आपकी इन पंक्तियों ने मन को बहुत छुआ-
 यह नहीं जानता है गज पर 
श्वानों का कब पड़ता प्रभाव ?
यह व्यर्थ भूँकना है उसका,
है वृथा सखे, उसका दुराव.
क्षण भंगुर जीवन को साथी !
ऐसे बर्बाद नहीं करते.
जिनके हाथों में सिर्फ पंक,
हम उनको याद नहीं करते।
सभी मित्रों को बधाई..
पंडित सुरेश नीरव.

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