एक कल्पित नाम
मुद्दतों के बाद देखी
इक सलोनी शाम
भर मांग में सिंधूर जिसकी
जा रहा था सूर्य अपने धाम ।
ओ दिवाकर !
ठहर कुछ पल
यों न जल्दी कर
इस विहंगम द्रश्य को
तन मन समाने दे
उत्सव गुलाबी शाम का
ढंग से मनाने दे
है ब्रह्म जब मित्थिया नहीं
तो यह जगत क्योंकर हुआ
पर हुआ उसके बिना
अग्ग्यात जिसका नाम ।
जानते हैं हम
की रात के सपने नहीं अपने
हम नींद के आगोश में
जब जब गए
वे पंख धरकर आ गए
ले गए हमको उड़ाकर
संग अपने
जब जब बजाई
भोर ने आकर हमारी अर्गला
" वह आ गया "
क्यों हमें ऐसा लगा
"वह न लौटेगा कभी
कर चुके हम नाम जिसके
हर सुनहरी शाम ।
बी एल गौड़
1 comment:
behtreen kavita hai bhvuk kar deti hai
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