प० सुरेश नीरव की राखी और स्वतन्त्रता दिवस की शुभकानायें देखी। उनके उर्वरक मष्तिष्क को सलाम करते हुए
एक रंगों में सराबोर ग़ज़ल पेश है।
होली पे लग रही है कड़कती हुई ग़ज़ल
रंगों में सराबोर, फड़कती हुई ग़ज़ल।
अब जाम या सुराही का चर्चा न कीजिये
बोतल सी चढ़ रही है, लुढ़कती हुई ग़ज़ल।
मानिन्दे- बर्क चमकेगी ये आसमान पर
शोलों की तरह दिल में भड़कती हुई ग़ज़ल।
कानों से नहीं, दिल से सुनें आपलोग सब
दिल की तरह, सीने में धड़कती हुई ग़ज़ल।
जामे- शराब थी या कोई और चीज़ थी
देखो गिलास जैसी तड़कती हुई ग़ज़ल।
मृगेन्द्र मक़बूल
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