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Tuesday, June 19, 2012

अनुभूतियों की आंतरिक संपदा


भूमिका-
श्रीनगर गढ़वाल के सुकवि नीरज नैथानी का काव्य-संग्रह शीघ्र प्रकाशित हो रहा है। उन्होंने मुझसे इस संग्रह की भूमिका लिखने को कहा है। प्रस्तुत है भूमिका के अंश-
पर्यावरणीय चेतना से लैस कविताएं
नीरज नैथानी संवेदना की भाषा-भूगोल के उस अक्षांक्ष के कवि हैं जहां की जमीन अनुभूतियों की आंतरिक संपदा के लिए बहुत उर्वरा है। पर्वत की वादियों में जहां उपनिषदों के ईशावस्यमादिकम सर्वम की अनुगूंज है तो वहीं पकृति की सत्ता की वेदांतिक अवधारणाओं से महकते-चहकते अंतर्दृष्टिपरक आध्यात्मिकता के सारस्वत स्वर भी हैं। जहां नदी और झरनों की कलकल के नूपुर-नर्तन की रुनझुन है तो वहीं फूलों पर रक्स करते भंवरों की गुनगुन है। बर्फ के अधरों की पानीदार मुस्कान है तो वहीं चांदनी में नहाया कहीं साफ-शफ्फाक आसमान है। यानी कि जहां का सारा पर्यावरण ही किसी फेंटेसी की तरह रेशमी और काव्यात्मक है। इस गीत-गीत वातावरण में नीरज नैथानी तो बस बांस की एक पोंगुरी भर हैं। जिसमें  पर्वत गाता है.पर्यावरण बाहें फैलाए अपने पास बुलाता है। नीरज स्वयं तो सिर्फ मार्ग हैं। पर्यावरणीय कविताओं के  शब्दों में उतर जाने के लिए। इसलिए इन रचनाओं में पर्यावरण के हस्ताक्षर हैं। नीरज स्वयं तो साक्षी हैं। गहराई से पड़ताल करें तो ये कविताएं अपनी ही गहराई की पुकार हैं। यह बाहर के जरिए भीतर की जाग्रति की रचनात्मक चेष्टा है। यह परिधि द्वारा अपने ही केन्द्र का स्मरण है। यह बाहर को तलाशती भीतर की खोज यात्रा है।  ये कविताएं इस बात की घोषणा हैं कि जो बाहर है,वह सब भीतर का ही विस्तार है। भीतर प्यास है तो बाहर पानी है। भीतर भूख है तो बाहर भोजन है। भीतर और बाहर का योग-संयोग ही पर्यावरण है। इसलिए मेरी पर्यावरणीय रचनाएं नीरज नैथानी की सृजनात्मकता का रचनात्मक संबोधन हैं। जिसमें वृक्षों,नदियों और पहाड़ों की आपसी दुआ-सलाम है। ढलती हुई शाम है। बुग्यालों का विश्राम है। और एक अनंत चाहत जो कभी उम्रदराज नहीं होती-
जाना चाहता हूं,दूर बहुत दूर
पहाड़ों की ओर बादलों के छोर
दिन हो कि सवेरा कुहरा सदा घनेरा
ढलती हुई शाम बुग्यालों में विश्राम
         (पहाड़ों की ओर)
चारों तरफ फैला बर्फ का साम्राज्य है। जिस के सीने में धड़कती है- लोक-संस्कृति की महक और सामाजिक जीवन की झलक। जिसके चरणों की धूल चंदन है। चुप्पी का अभिनंदन है-
चरण रज में हिम शिखरों की
रजत कण सम रहती हूं
हिमनद-हिमखंडों का अंश बनी
हिम निर्धरणी संग बहती हूं
(चरणरज मैं)
बर्फ...सिर्फ बर्फ...। इस बर्फ का जादुई एकांत। जहां शब्द के नेपथ्य में टहलते मौन के अर्थवान पदचाप गूंजते हैं। मगर इस मौन को सुनने का हुनर भी हर किसी के पास कहां होता है। मौन को सुनना ही सम्यक-श्रवण है। नीरज नैथानी इस मौन संगीत को सुन लेते हैं, जिसमें कि छिपा होता है एक मूक आमंत्रण-
जब भी आए पास तुम्हारे बांहों में भर लेते हो
थककर हारे दूर हुए हो जब भी साहस खोया है
ओठों में है बोल नहीं पर मूक निमंत्रण देते हो
नीरज की कविताएं रचनाकर्म नहीं हैं। बल्कि ये स्वतःस्फूर्त कविताएं हैं। कर्म सप्रयास होता है। कृति स्वतः अंतःस्फूर्त होती है। कर्म सामयिक होता है,कृतियां शाश्वतता का नैरंतर्य लिए होती हैं। कृति नीरज का आचरण है। नीरज का रचनात्मक अंतःकऱण है। जिसे अनवरत एक अनकहा दर्द कचोटता रहता है। कवि की अघोषित वेदना है कि जो तीर्थ स्थल रहे पहाड़ों को आज पिकनिक स्पॉट और ऐशगाह में तब्दील होते देख रही हैं-
पहाड़ सदा अच्छे लगे पिक्चर, पोस्टर, कैलेंडर में
बस नहीं भाया पहाड़ में नौकरी करना
पहाड़वालों के साथ पहाड़ी बनकर रहना
(पहाड़)
कभी पहाड़ जीवन के अनंत उल्लास के प्रतिष्ठान हुआ करते थे। जहां जीवन भी जीकर जीवन जीना चाहता था। लेकिन आज बहुत कुछ दरक गया है, पहाड़ की जड़ों से। आज अपनी ही शांति में अशांत हैं ये पहाड़। स्वयं को स्वयं में विसर्जित करते से पहाड़। मगर दरकते-सरकते इन पहाड़ों से लापता होते जंगल कब तक चुप रह सकते हैं। इनका गूंगा दर्द कल कुटिल आदमी के खिलाफ बयान बनेगा,यह नीरज नैथानी का नैसर्गिक आत्मविश्वास है-
कभी सोचा शिकायत कर सकते हैं जंगल
हमारे खिलाफ गवाही दे सकते हैं
अधजले पेड़ बेहिसाब,ज़रा सोचो क्या होगा
जिसदिन हमारी तमाम गलतियां
मिलकर खड़ी हो जांएगी हमारे खिलाफ
यह आत्मविश्वास उन पाखंडियों के अनुपस्थित तथ्योंवाले प्रलाप से भिन्न है जो प्रलय आने की सूचनाओं से डराने के बजाय पर्यावरण के प्रति एक जिम्मेदार बोध से भरा हुआ है। वह बोध जो आज के आदमी को पर्यावरण के प्रति सचेच और सतर्क करता है। और भौतिकता की बेलगाम दौड़ पर नकेल भी कसता है-
भौतिकता की बाढ़ में बह गईं सारी नाव
पीपल भी दिखता नहीं फिर कहां मिलेगी छांव
कोयल सारी उड़ गईं कौवे करते कांव
 (भौतिकता की आंधी)
पर्यावरण में केवल नदी,पहाड़ औग जंगल ही नहीं आते। वन्य-जीव भी आते हैं। कवि का मेरी पर्यावरणीय कविताएं कथन इस नैसर्गिक सरोकार से पूरी तरह लैस है और वह बाजारवादी आदमी की व्यावसायिक मजबूरी पर व्यंग्य करते हुए निरीह हिरण की तरफ से बयान देता है कि-
हिरण का बयान है कि
हमारा बचे रहना क्यों है
तुम्हारे लिए जरूरी
हम समझते हैं तुम्हारी मजबूरी
इन सबके पीछे है तुम्हारी कस्तूरी

जिस देश में नदियों और वृक्षों की पूजा की परंपरा रही हो, अपने अमृत तुल्य जल से सभी की प्यास बुझाती रही हो आज उसी देश की नदियां प्रदूषण का जहर पी रही हैं और तड़फ-तड़फकर दम तोड़ रही हैं। जंगल जहां कभी पक्षियों का संगीत गूंजा करता था। आज वहां सन्नाटा पसरा हुआ है। और जंगलों के साथ यह सब बदसलूकी भौतिकता के मोहपाश में जकड़ा आदमी कर रहा है जिसपर जंगलों ने हमेशा दुआओँ की बारिश की है।
 यह दर्द ही नीरज नैथानी की कविताओं का प्राण तत्व है। महर्षि अरविंद कहते हैं कि प्रकृति सदा संतुलन और तारतम्य की खोज में रहती है। जीवन और पदार्थ भी उसी खोज में हैं जिस तरह मन अपनी अनुभूतियों को सुव्यवस्थित देखना चाहता है। पर्यावरण
प्रकृति का मन है। यह पर्यावरण
 ही मन को संचालित करता है। अगर पर्यावरण का मन अशांत है तो हमारा मन कैसे शांत हो सकता है। हमारी अनुभूतियां कैसे इस प्रभाव से अछूती रह सकती हैं। इसलिए ही नीरज की कविताएं पर्यावरण के समर्थन में खड़ी कविताएं हैं। अंत में मैं यही कह सकता हूं कि नीरज नैथानी की कविताओं में और पर्यावरण में एक ऐसा तादात्म्य देखने को मिलता है कि यह बड़े सुखपूर्वक कहा जा सकता है कि इनकी कविताओं में पर्यावरण है और पर्यावरण में इनकी कविताएं हैं। पर्यावरणीय चेतना से पूरी तरह लैस ये कविताएं  कविताओं की एक विशाल भीड़ से अलग खड़ी होकर अपनी शिनाख्त दर्ज कराती हैं। मौलिकता का यही वैभव पाठकों को तुष्ट-संतुष्ट करेगा,इसी सात्विक विश्वास के साथ मैं यह जरूरी काव्य-संग्रह आप सभी को सहर्ष सौंप रहा हूं..
पंडित सुरेश नीरव
(विख्यात कवि एवं पत्रकार)
आई-204,गोविंदपुरम,गाज़ियाबाद
मो. 9810243966

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