पल रहा था मैं उस दरखत की छाँव में,
खेल रहा था मैं शीतल म्रदुल ठांव में,
छीनकर मुझसे वह आशियाना तुम,
चले गए तुम कहाँ और किस गाँव में.
भटक रहीं ये बिरियाँ गीला आंचल कर,
टेकता हूँ सिर मैं तिहारे पाँव में.
आपकी अनुपम साया, थी सनद मेरी,
कौन चुरा ले गया उसे किस नाव में.
क्या मिलेगी तात! वरद सहलान मुझे,
लौट आयें आप, कौए की कांव में.
नेह की सिहरन अंकुरित स्वरक्त से,
पल्लवित रहे सदा तिहारी छाँव में.
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