शिवरात्रिपर विशेष
शिव स्वयं
सावन हैं
समग्र किसान चेतना का प्रतीक है- शिव
ओम त्रियंम्कम यजामहे सुगंधिम पुष्टिवर्धनम उर्वारुकनिव बंधनानमृत्योर्मुक्षीयमामृतात |
पंडित सुरेश नीरव
सावन का महीना। चैत्र मास से शुरू होनेवाले भारतीय
कैलेंडर का पांचवा महीना। पांच यानि सृष्टि के पंचभूत का प्रतीक। तो फिर क्यों न
हो भूताधिपति महादेव को प्रिय यह पांचवां महीना। जो स्वयं जल की तरह तरल और भोले
हैं। जिनके माथे पर चंद्रमा है जो कि जल तत्व का प्रतीक है। जिनकी जटाओं में गंगा
है जो जल ही नहीं आपः है। आपः यानी आस्था से सिक्त जल।शिव जो स्वयं केदार हैं।
केदार अर्थात जल से भरा हुआ खेत। जो शिव है। शिव जो कल्याणकारी तो हैं हीं मगर शिव
का एक अर्थ पशु धन को थामनेवाला खूंटा भी होता है। शिव का वाहन नंदी है। जो कि
किसान के हल में जुतकर उसकी हर समस्या हल कर देता है। इस कृषिप्रधान देश की
अस्मिता का प्रतीक है किसान। और इस समग्र किसान चेतना का प्रतीक है- शिव। टकटकी
लगाए वर्ष भर किसान इंतजार करता है आकाश में घुमड़ते काले-काले बादलों का। सावन
में चारों तरफ हरीतिमा बिखरने से धरती पर उल्लास का भाव
होता है। वर्षा की बूंदों से बरसता यह अलौकिक उल्लास ही शिव है। इस वर्षा का ही
सम्मान है कि हम अपने देश भारत को भारतवर्ष कहते हैं। जो वर्षा को धारण करे वह वर्ष
है। हम एक वर्षा से दूसरी वर्षा की अवधि को एक वर्ष कहते हैं। यानि की काल को
नापने का पैमाना भी हमारे यहां वर्षा है। तो फिर काल को संचालित करनेवाला महाकाल
तो स्वयं सावन होता है। वैदिक संस्कृति में एक सूर्योदय से एक सूर्यास्त का जो काल
है उसे भी सावन कहा गया है। तो फिर जब स्वयं शिव सावन है तो फिर क्यों सनत कुमारों
ने महादेव से उनके सावन के महीने को पसंद करने का कारण पूछा। ऐसा नहीं कि ब्रह्मा
पुत्र इस सत्य को नहीं जानते होंगे। अगर वे प्रश्न नहीं पूछते तो कैसे ये तथ्य
उदघाटित होता कि हिमालय में जन्मी कन्या पार्वती वही सती है जिसने कि पिछले जन्म
में अपने पति शिव का पिता द्वारा उपहास करने पर योग शक्ति से अपने प्राण त्याग दिए
थे। और इस मास में ही निराहार रहकर अपनी कठोर तपस्या से पार्वती ने शिव को प्रसन्न
किया था। इस तरह सावन शक्ति (पार्वती) और शक्तिमान (शिव)
दोनों के मिलन का केन्द्र हैं। चातुर्मास्य में जब भगवान
विष्णु शयन के लिए जाते हैं, तब शिव ही तो हैं जो तीनों लोकों की सत्ता संभालते हैं। श्मशानी
रुद्र ग्रहस्थ बनकर विवाह रचाते हैं। लेकिन यह लौकिक विवाह नहीं
है। यह ब्रह्म
और प्रकृति का विवाह है। यही सावन की शिवरात्रि
है। इस शिवरात्रि के बाद आती है- नाग पंचमी। नाग काल का प्रतीक है। जो काल सापेक्ष नहीं है उसका कोई विकास संभव
नहीं। शिव तो स्वयं त्रिकालदर्शी हैं। प्रकारांतर से नाग की पूजा महाकाल के
साथ-साथ काल की ही पूजा है। रक्षा बंधन से ठीक पहले घर के द्वार पर नाग बनाकर उनकी पूजा करने का
हमारे यहां विधान है। श्रावण मास
की पंचमी को जहां नागों की पूजा की जाती है, वहां नवमी तिथि को नेवलों
की पूजा की जाती है। नउरी नवमी पर नेवला पूजन इस बात
की घोषणा है कि जीव ही जीव का भक्षक है। और सांप कितना ही विषैला क्यों न हो अंततः
वह नेवले से हार ही जाता है। विषपायी शिव को जिसने देवासुर संग्राम में निकले
संसार के सबसे तीक्ष्ण विष हलाहल को कंठ में धारण कर लिया हो, विष के उस दाह को
शमित करने के लिए ही देवों और भक्तों द्वारा किया गया पवित्र जल से उनका विराट
अभिषेक। तभी से चली आ रही है अभिषेक की परिपाटी। उसी का सामाजिकरूप है-कांवर
यात्रा। संसार का पहला कंवरिया था-महाशिवभक्त-रावण। जिसकी एक कांवर में थे शिव और
दूलरी कांवर में था गंगाजल। अपने आराध्य को कैलास से लंका ले जाने को रावण चल पड़ा
कंधे पर लिए कांवर। मगर बिहार के वैद्यनाथ धाम तक आते-आते वह श्रमश्लथ हो गया। बालक
बने नारद को उसने कांवर थमाई। थोड़ी देर बाद जब रावण शंका निवृत होकर आय़ा तो जमीन
पर कांवर रख कर बालक गायब दो चुका था। कांवर जमीन पर न रखने का विधान जो है। इसलिए शिव पत्थर के होकर वहीं रह गए। मगर भगवान
शिव की भक्ति और आराधना से जुडे़ भक्तगण आज भी देश की विभिन्न पवित्र नदियों से जल
इकट्ठा करके प्रसिद्ध शिवलिंगों पर जलाभिषेक करते हुए गृह स्थल पर जाकर
अपनी कांवर यात्रा संपन्न करते हैं।
No comments:
Post a Comment