मुंबई के बाद दिल्ली में भी 'अन्ना टीम'का
फ्लाप शो जारी है।क्या आपने गंभीरता से सोचा है क्यों?क्या देश की
जनता ने कांग्रेस के कुशासन को स्वीकार कर लिया।क्या सारा मीडिया बिक गया?क्या
मुद्दे अप्रसांगिक हो गये?यदि ये प्रश्न आप मुझसे पूंछेंगे तो मैं
कहूंगा नही।ऐसा कुछ भी नही है।जहां तक मैं समझता हूं तो मुझे लगता है कि इस आंदोलन
को चलाने वालों से कुछ भयंकर भूले हुई हैं जिनकी वज़ह से एक बडे वर्ग का मोह भंग
हुआ है।
दरअसल क्रांति और आंदोलन में एक बुनियादी फर्क है।क्रांति
आमूल-चूल परिवर्तन करती है।क्रांति सृजन से पहले बहुत कुछ नष्ट करती है ।प्राणों
की आहुति लेती है।गेहूं के साथ घुनों को भी पीसती है।कुल मिलाकर क्रांति मूल्य
मांगती है।इसके विपरीत आंदोलन कुछ ले दे के आगे बढने का रास्ता है।विश्व में गांधी
से बडा आंदोलनकारी दूसरा नहीं हुआ।आप गांधी के सारे आंदोलनो को देखिये बिना ये
आंकलन किये गांधी के आंदोलनों के स्थगन के कारणओ के पीछे।आप पायेंगे जब भी आंदोलन
चरम पर पहुंचा गांधी ने कुछ ना कुछ ले कर समझौता कर लिया।आफ सहमत हों या ना हों
आंदोलनों की सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि आप कब और कैसा समझौता करते हैं।
अब अन्ना आंदोलन पर आते हैं--रामलीला मैदान में जब अन्ना को
समर्थन देने के लिये लाइन लगी थी।सरकार सकते में थी वह मौका था कुछ लेकर अगली लडाई
की तैयारी का।यही लोकपाल---जैसे यही वाला चांद चाहिये की ज़िद ने उस महान अवसर को
गवा दिया।आंदोलन एक दिन में नहीं खडे होते।और बार बार चरम पे भी नहीं पहुंचते।
दूसरे व्यक्ति के
शब्दों का नहीं आचरण का असर पडता है।त्याग का असर गांधी से लोग लाख असहमत होते
हुये पीछे हो लेते थे कि कुछ भी हो इस अधनंगे आदमी ने त्याग तो किया है।यही बात
अन्ना पर लागू होती है।कुछ हद तक अरविंद केज़रीवाल पर भी परंतु प्रशांत भूषण,कुमार
विश्वास और मनीष सिसोदिया जैसे अन्य लोगों पर ये बात लागू नही होती।इन लोगों ने इस
आंदोलन को कमजोर किया है विशेष रूप से प्रशांत भूषण ने जिस शहरी मध्यम वर्ग ने
रामलीला मैदान में इस टीम को हीरो बनाया था वह कुछ दिनों बाद हतप्रभ रह गया जब
उसने प्रशांत भूषण को कश्मीरी अलगाववादियों का समर्थन करते देखा।प्रशांत भूषण ये
भूल गये कि जिन लोगों ने आज तक लालकृष्ण
आडवाणी को माफ नहीं किया ज़िन्ना को देशभक्त बताने के लिये वे
उन्हे कश्मीरी आतंकवादियों के समर्थन या कश्मीर को स्वायत्ता वाले बयान पर माफ कर
देंगे।इसी तरह कुमार विश्वास,किरण बेदी आदि इस आंदोलन को मज़बूथ कम
कमजोर करने वाले ज़्यादा सिद्ध हुये।शाही इमाम जैसे लोगो के पास समर्थन के लिये
जाकर प्रगतिशील मुसलमानों के मन में भी संदेह इन लोगों ने पैदा किया।
अब प्रश्न उठता है कि क्या ये आंदोलन किस परीणिति को पहुंचेगा
तो ये तय मानिये कांग्रेस अगले इलेक्शन में सत्ता में नहीं आ रही।पर आंदोलन तभी
जीवित रहेगा जब कोई कुर्बानी देगा ।मुझे सबसे ज्यादा चिंता अरविंद केज़रीवाल की है
।मुझे लगता है कि उनके साथी कहीं उन्हें राजू गाइड ना बना दें।हाइली डायबिटिक
अरविंद में लक्ष्य के लिये जो समर्पण है वह उनकी जान भी ले सकता है।भगवान ना करे
कहीं ऐसा हो (और सरकार भी नहीं चाहेगी ०)ये आंदोलन क्रांति में बदल जायेगा ।इसे
फिर ४२ का आंदोलन बनते देर नही लगेगी।जो लोग अन्ना टीम के गलत निर्णयों से क्षुब्ध
होकर खामोश बैठै हैं वे सडकों पर होंगे और शांतिपूर्ण नही होंगे। जिस दोराहे पर ये
लडाई आ गयी है वहां से या तो इस आंदोलन को धीरे-धीरे गुमनाम मौत मरना है या फिर
किसी महत्वपूर्ण आंदोलनकारी को मरना है।याद रखिये भगतसिंह को फांसी ना होती तो
गांधीवादी आंदोलन भी सफल ना होते---हर परिवर्तन कीमत मांगता है।जितना बडा परिवर्तन
उतनी बडी कीमत।
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