मित्रो, अपनी एक बहुत पुरानी रचना प्रस्तुत करता हूँ .....
थक गया है आसमां
चलते चलते
कुछ जमीं भी
रुकी रुकी सी दिखती है
बे-खौफ ये जहां सोया है
रात के आगोश में
न जाने मुझे क्यूँ
नींद नहीं आती
खुली आँखों से एक ख्याब
सजा रहा हूँ मैं
जीवन की तनहाई को
महफिल बना रहा हूँ मैं
तुम आना...........
मन में दीप जलाकर
कुछ आशाएँ लेकर
कुछ प्यार जगाकर
तब कलियाँ खिलेंगी
चमन महकेगा
सदियों से स्थिर
ये मन बहकेगा
मन तो मूरख है
हर पल जिद पे रहता है
ये कब मेरी सुनता है
बस अपनी ही कहता है
एक पल की चाहत
कब से दबाये बैठा हूँ
कुछ हासिल नहीं फिर भी
सब कुछ लुटाये बैठा हूँ
प्रलय थम चुकी है
अंधकार मिट चुका है
ऊंचे ऊंचे पर्वतों से
रौशनी की किरन दिखती है
सब कुछ शुरू हो गया है
रोज़ की तरह
शायद फिर
सुबह हो चुकी है
मैं बैठा हूँ
एक सदी से
सोने के लिए
न जाने मुझे क्यूँ
नींद नहीं आती।
-मनीष गुप्ता
बे-खौफ ये जहां सोया है
रात के आगोश में
न जाने मुझे क्यूँ
नींद नहीं आती
खुली आँखों से एक ख्याब
सजा रहा हूँ मैं
जीवन की तनहाई को
महफिल बना रहा हूँ मैं
तुम आना...........
मन में दीप जलाकर
कुछ आशाएँ लेकर
कुछ प्यार जगाकर
तब कलियाँ खिलेंगी
चमन महकेगा
सदियों से स्थिर
ये मन बहकेगा
मन तो मूरख है
हर पल जिद पे रहता है
ये कब मेरी सुनता है
बस अपनी ही कहता है
एक पल की चाहत
कब से दबाये बैठा हूँ
कुछ हासिल नहीं फिर भी
सब कुछ लुटाये बैठा हूँ
प्रलय थम चुकी है
अंधकार मिट चुका है
ऊंचे ऊंचे पर्वतों से
रौशनी की किरन दिखती है
सब कुछ शुरू हो गया है
रोज़ की तरह
शायद फिर
सुबह हो चुकी है
मैं बैठा हूँ
एक सदी से
सोने के लिए
न जाने मुझे क्यूँ
नींद नहीं आती।
1 comment:
waah.....aisi rachna ki ummeed aapse hi thi.....bahut accha.....seekhne ko mila aaj kuch....dhanya hain aap...!!!
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