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Thursday, November 8, 2012

औपनिवेशिक व्यवस्था में मानव संसाधन



मानवाधिकार की अवधारणा और भारतीय संस्कृति
सुरेश नीरव
प्रकृति ने सभी मनुष्यों को एक समान बनाया है। और उसे उसकी बुनियादी आवश्यकताएं उपलब्ध कराने का भी जिम्मा भी स्वयं प्रकृति ने लिया है। लेकिन जाति,धर्म,भाषा और आर्थिक विषमताओं ने आदमी के बीच ऊंच-नीच का भेदभाव पैदा कर दिया। गरीब आदमी अपने आकाओं का गुलाम बना दिया गया। और असहाय आदमी पशुओं की तरह खरीदा-बेचा जाने लगा। गरीब का अमीर लोगों द्वारा अमानवीय उत्पीड़न किया जाने लगा। औपनिवेशिक व्यवस्था में मानव संसाधन राज्य के धनोपार्जन के लिए महज़ कच्चा माल बना दिया गया। जहाजों में भर-भरकर गिरमिटिया मजदूरों को उनके अपने देश से बाहर जबरन ले जाया जाने लगा। तमाम निःसहायों को हिटलर के गैस चैंबरों में ठूंसकर जिंदा दफ्न कर दिया गया। इतिहास गवाह है कि जापान के हिरोशिमा और नागासाकि को परमाणुबम की भेंट चढ़ाकर सत्ता ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया।  राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने न जाने कितने देशों को युद्ध की आग में झोंक दिया। दो-दो विश्वयुद्ध झेल चुका आहत मानव समाज युद्ध की विभीषिकाओं और युद्धबंदियों पर हुए अत्याचारों और निरीह जनता के कत्लेआम से खुद-ब-खुद सिहर उठा। कई देश संपन्न हो गए और कई देश की आम जनता एक  अदद रोटी के लिए भी मोहताज हो गई। कुपोषण और प्राकृतिक आपदाओं ने उन्हें पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को विवश कर दिया। तब दुनिया के लगभग सभी देशों की सरकारों ने गंभीरता से सोचा कि आखिर हम कब तक इंसान को पशुओं की तरह जीवन जीते हुए देख सकते हैं। कोई एक न्यूनतम सीमा तो तय करनी होगी मनुष्य के मौलिक अधिकारों की। इस सोच ने दुनिया के सभी देशों को संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर एक साथ ला दिया। तय हुआ कि किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का जो बुनियादी अधिकार है वही मानवाधिकार है। और इस तरह 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की समान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत और घोषित किया। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक कुछ ऐसे मानवाधिकार हैं जो कभी छीने नहीं जा सकते;  जो मानव की नैसर्गिक गरिमा हैं। और इसी के साथ ही स्त्री-पुरुष के अधिकार भी समान हैं। लिंग,नस्ल,धर्म या रंग के आधार पर भेदभाव मनुष्यता के साथ एक क्रूर अपराध है। अगर हम अपने अतीत को खंगालें तो हमारी संस्कृति की बुनियाद ही मानव अधिकारों की सुसंस्कृत अवधारणा पर ही टिकी हुई है। वसुधैव कुटुंबकं। सारा संसार हमारा परिवार है। और जिओ और जीने दो यही हमारी संस्कृति का मूल मंत्र हैं। हमारे यहां अतिथि को भगवान एवं गरीब को भी दरिद्र नारायण कहकर सम्मानित भाव से देखने की परंपरा रही है। और-तो-और युद्ध के दौरान भी मानव अधिकारों का अतिक्रमण इस देश में कभी नहीं किया जाता था। महाभारत में सूरज ढलने के बाद युद्ध नहीं होता था और शाम को बिना इस भेदभाव के कि कौन मित्र-पक्ष का सैनिक है और कौन शत्रु पक्ष का सैनिक है,युद्ध शिविर में जाकर घायलों का उपचार किया जाता था। बच्चों,बूढ़ों और स्त्रियों को युद्ध के समय भी पूरी सुरक्षा दी जाती थी। लेकिन विदेशी हमलों के झंझावातों ने मानव अधिकार की इस गौरवशाली परंपरा को हमारे देश में भी नष्ट कर दिया। पृथ्वीराज चौहान द्वारा सात-सात बार पराजित मोहम्मद गोरी को क्षमादान देने की मिसाल हमारे ही इतिहास में मिलती है। मानव अधिकारों के सम्मान का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। सम्राट अशोक ने भी मानव अधिकारों के मूल्यों को रेखांकित करते हुए अनेक आदेश निकाले थे। ये आदेशपत्र मानव अधिकार के कालजयी दस्तावेज कहे जा सकते हैं। इतना ही नहीं हमारे धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों में भी  ऐसी अनेक अवधारणाएं है जिन्हें मानवाधिकार के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। मुहम्मद(saw) साहब द्वारा निर्मित मदीना का संविधान(meesak-e-madeena) भी मानव अधिकार की नायाब धरोहर है। लेकिन विचार और व्यवहार में हमेशा अंतर रहा है। मानव अधिकारों के दार्शनिक पक्ष को समय-समय पर मनुष्य ने ही क्षत-विक्षत किया है। हमारे देश में भी परंपरा के नाम पर स्त्री को पति के साथ सती कर देने और धर्म के नाम पर नरबलि देने की क्रूर प्रथा रही है। विधवाओं के साथ समाज पशुओं की तरह व्यवहार करता था। आज भी गांवों में विधवाओं की कमोवेश वही स्थिति है। बृंदावन के विधवाश्रम इस बात के गवाह हैं। कन्या भ्रूण हत्या,दहेज उत्पीड़न और सामंती मानसिकता के तहत ऑनरकिलिंग के अभिषाप से हमारा समाज आज भी मुक्त नहीं हो सका है। दलितों और वंचितों के साथ आज भी भेदभावभरी मानसिकता और उत्पीड़न की घटनाएं आए-दिन देखने-सुनने को मिल जाती हैं। धर्म के नाम पर जारी आतंकवाद ने भी मानवअधिकारों में सेंध लगाकर हमें नए सिरे से सोचने को विवश कर दिया है। मानवअधिकारों का हनन हमारे पड़ोसी देशों में तांडव कर रहा है। मलाला का ताज़ा उदाहरण हमारे सामने है। स्त्रियों को आज भी शिक्षा ग्रहण करने के मौलिक अधिकार से वंचित करने के फतवे जारी किये जा रहे हैं। ईशनिंदा के नाम पर तमाम बेगुनाहों को मार दिया जा रहा है। नस्ली हिंसा की चपेट से यूरोप,अमेरिका और आस्ट्रेलिया भी मुक्त नहीं। ऐसे में मानव अधिकारों की सटीक व्याख्या और उनका कार्यान्वयन एक समकीलीन वैश्विक जरूरत बन गई है। और दुनिया के सारे देश एकजुट होकर मानवअधिकारों के कार्यान्वयन के लिए लामबंद होने लगे हैं। मानव अधिकारों की मौजूदा अवधारणा का आदि-दस्तावेज़ जर्मनी के किसान - विद्रोह(सन्-1525) के दौरान स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गई किसानों की मांगों को माना जा सकता है जो कि द ट्वेल्व आर्टिकल्स ऑफ़ द ब्लैक फॉरेस्ट के नाम से पेश की गई। इस बीच विश्व-पटल पर दो और महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं- पहली  सन्- 1776 में संयुक्त राज्य में और 1789 में फ्रांस में हुई क्रांतियां। जिसका नतीजी हुआ संयुक्त राज्य की स्वतंत्रता की तथा फ्रांस में मानव तथा नागरिकों के अधिकारों की  वैधानिक घोषणा। इन दोनों क्रांतियों ने दुनियाभर के सत्ता केन्द्रों को आदमी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसके बुनियादी अधिकार दिलाने के लिए एक सशक्त कानून बनाने के लिए प्रेरित किया। और यहीं से शुरू हुई मानवाधिकारों की सार्थकता का सूत्रपात। आज तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठन सारी दुनिया में सक्रिय हैं जो इंसान को उसके बुनियादी हक दिलाने को प्रतिबद्ध हैं। इंसान की जिंदगी में, आजादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक समरसता और सम्मान जीवकोपार्जन का जो अधिकार है,मुख्यतः यही मानवाधिकार है। हमारे देश का संविधान भारत के हर नागरिक को यह अधिकार मुहैया कराता है, साथ ही मानवाधिकार के हनन को संज्ञेय अपराध भी मानता है। भारत सरकार ने देश के प्रत्येक नागरिक को मानवाधिकारों के प्रति जाग्रत करने के लिए विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में, इसके प्रचार, प्रदर्शन, पठन और व्याख्या के समुचित प्रबंध भी किए हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अभी हाल में ही सूचना के अधिकार को सरकार ने मानवाधिकारों में शामिल करके देश के प्रत्येक नागरिक की रचनात्मक भागीदारी में और इजाफा कर दिया है। आतंकवाद की घिनौनी साजिशों के बावजूद भारत में मानवाधिकारों की जो स्थिति है वह दुनिया के तमाम देशों के मुकाबले बेहद संतोषजनक और प्रेरणाप्रद है। ह्यूमन राइट्सवॉच तथा एमनेस्टी इंटरनेशनल-जैसी अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं ने भी इस संदर्भ में भारत की प्रशंसा ही की है। और पड़ोसी देश के बुद्दिजीवी और मीडिया मानवाधिकार के मामले में समय-समय पर भारत का उदाहरण भी देते रहते हैं।

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