चिन्गारियाँ परोस दीं काग़ज़ पर
समाज पिघले यही कामना है।
सम्पूर्णता को वो देख नहीं पाता
बस इसीलिए रहता अनमना है।
दीवारें बना-बना लिख डालीं
‘इसके आगे जाना मना है।
कल वही शेर सा दहाड़ेगा
आज जिसे कहते ‘मेमना है'।
परवाज़ों का रियाज़ बनाये रखो
बहुत सी बलंदियों काे चूमना है।
खिल कर जी लो इस जीवन में
किसने देखा कि जन्मों में घूमना है।
पेड़-पौधों को बचा कर रखो
इन्हीं संग जीना, झूमना है।
अपने को कभी थका-बूढ़ा मत समझो
उकेरो, जो तुममे छिपा महामना है।
एक और एक मिले तो अनन्त
बस हाथों को पूरे मन से थामना है।
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