अब मैं राशन की कतारों में नज़र आता हूँ
अपने खेतों से बिछडने की सज़ा पाता हूँ
इतनी मह्ंगाई के बाज़ार से कुछ लाता
हूँ
अपने बच्चों में उसे
बाँट के शरमाता हूँ
अपने नीदों के लहू को पोछने की कोशिश में
जागते जागते थक
जाता हूँ सो जाता हूँ
कोई चादर समझ के खींच न ले फिर से ‘ख़लील ’
मैं क़फन ओढ़ कर
फुटपाथ पे सो जाता हूँ
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