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Monday, July 8, 2013

पंडित सुरेश नीरव होने का मतलब

पंडित सुरेश नीरव होने के मायने
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अभी हाल ही में पंडित सुरेश नीरवजी की पुस्तक का आजादभवन में लोकार्पण हुआ।500 से अधिक लोगों का ऐसे आयोजन में पहुंचना यह सोचने को विवश करता है कि क्या अचानक देश में साहित्य के प्रति लोगों का प्यार उमड़ पड़ा है यह इस बात का संकेत है या फिर यह पंडितजी के अपने व्यक्तित्व का आकर्षण है। यकीनन ये नीरवजी का अपना ही प्रभामंडल है। क्योंकि उसके बाद फिर दो आयोजनों में जाने का मौका मिला मगर शोकसभा की तर्ज़ पर कुछ लोग मुंह लटकाए ही बैठे मिले। तब मुझे नीरवजी के दो और कार्यक्रम याद हो आए। एक पुस्तक लोकार्पण का कार्यक्रम कंस्टिट्यूशनल क्लब में था। लोकार्पण स्वर्गीय माधवराव सिंधिया कर रहे थे। मंच पर आज के काग्रेस महासचिव जनार्दन दिव्वेदीजी थे। कन्हौयालाल नंदनजी थे और अमरउजाला के संपादक उदयन शर्माजी थे। श्रोता इतने अधिक आ गए कि उस समय के उर्दू अकादमी के पदाधिकारी और अनेक शायर दरवाजा पीटते रहे मगर दरवाजा नहीं खोला जा सका। एक कार्यक्रम में ऐसा ही नजारा तब देखने को मिला जब तत्कालीन श्रममंत्री साहिबसिंह वर्मा नीरवजी के कार्यक्रम में आए थे। हर बार नीरवजी को सुनना एक नया तजुर्बा होता है। कभी वे दर्शन पर बोलते हैं तो कभी व्यंजना में । माननीय डॉक्टर कर्णसिंहजी और विंदेश्वर पाठकजी ने भी लोकार्पण के मौके पर उनके लिए कुछ ऐसा ही कहा। हमारी पीढ़ी के लिए नीरवजी प्राणवायु हैं। और पंडित सुरेश नीरव होने के एक अलग मायने हैं। तमाम लोगों को मैंने सुरेश नीरव होने की कोशिश में लगे देखा है। पर क्या वे हो पाए या फिर क्या वो हो सकेंगे।
-विष्णुदत्तशर्मा विराट(फेसबुक वाल से)
(कवि-पत्रकार)

1 comment:

HIRA LAL PANDEY said...

sahi likha hai. Aaj ke nai pidhi ke purodha hai. Badhai