सर्वभाषा
संस्कृति समन्वय समिति –
दोस्तों की महफिल में लीजिए फिर हाज़िर हूं एक नई ग़ज़ल के
साथ। अपनी राय जरूर दीजिएगा।
**@सुरेश नीरव
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खिलते फूलों में ख़ुद को छिपाते रहे
ख़ुशबुओं की तरह आते-जाते रहे
लाख चेहरे पे चेहरे लगाए मगर
आईऩे में नज़र दाग आते रहे
यूं तो रिमझिम हवा को भिगोती रही
क्यूं बदन धूप के फिर भी प्यासे रहे
उम्रभर की ख़ुशी सौंप दी थी जिन्हें
रंजिशें प्यार में वो बढ़ाते रहे
गुम अंधेरे में सारा ज़माना हुआ
हम तेरी रोशनी में नहाते रहे
फूल जख्मों के थे दर्द के बाग में
अश्क का उनको दाना-पानी लगाते रहे।
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