पंडित सुरेश नीरव |
पर्यावरण पर ग़ज़ल-
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आज की तरक्की के रंग ये
सुहाने हैं
डूबते जहाजों पे तैरते
खजाने हैं
अब उजड़ते जंगल के लापता
परिंदों को
आंसुओं की सूरत में दर्द
गुनगुनाने हैं
ग्लेशियर के गलने से सूखते
दहाने हैं
हांफती-सी नदियों के लापता
ठिकाने हैं
टूटती ओजोन पर्तें रोज़
आसमानों में
आतिशों की बारिश है प्यास
के तराने हैं
वार्मिंग तो ग्लोबल है सब
रुतें झुलसनी हैं
जलजलों को तेवर भी अब तो
आजमाने हैं
आस्था सिसकती है पर्वतों के
मलबे में
अब बिलखती धरती के कर्ज भी
चुकाने हैं
एटमी प्रदूषण के क़ातिलाना
तेवर हैं
पांव बूढ़ी पृथ्वी के अब तो
डगमगाने हैं।
-पंडित सुरेश नीरव
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