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Monday, May 30, 2011

जीवन और मृत्यु


मृत्यु क्या है।
प्रश्नः2 आदरणीय पंडित सुरेश नीरवजी जीवन और मृत्यु दो ऐसे शब्द हैं जिनसे आदमी कभी मुक्त नहीं हो पाता है। फिर मृत्यु के प्रश्न का घेरा तो इतना जटिल है कि ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ती जाती है, इसका घेरा उतना ही तंग होता जाता है। आप बताने का कष्ट करेंगे कि आखिर ये मृत्यु क्या है।
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हंसजी आपने बड़ा जटिल प्रश्न पूछा है। क्योंकि मौत के बारे में प्रामाणिकरूप से तो मरे हुए लोग ही बता सकते हैं। मौत पर वही बोल सकता है जो कभी मरा हो। या फिर मृतप्राय हो। बड़ा जटिल प्रश्न है,आपका। लेकिन यह भी तय है कि प्रश्न जितने गूढ़ होते हैं उनके उत्तर भी उतने ही गाढ़े आते हैं। जिज्ञासा की जमीन का जितना गहरा खनन होगा, उत्तर उतने ही उर्वरा होंगे। फिर अगर जिंदगी अनुभव है तो मौत अनुभव क्यों नहीं। लेकिन जो जन्मा ही न हो अगर उससे पूछ लिया जाए कि जीवन क्या है तो क्या जवाब देगा वह। अंधे से अगर पूछा जाए कि रोशनी क्या है तो क्या जवाब देगा वह। इस हिसाब से शायद मृत्यु का मतलब है,जीवन जहां अनुपस्थित है,वहीं मृत्यु है। जीवन का जो अज्ञात अनुभव है,वही मृत्यु  है। जहां अपने होने का बोध लापता हो जाए वह स्थिति मृत्यु है। जीवन ज्ञात है और मृत्यु अज्ञात है। इसलिए ज्ञात से अज्ञात की अनंतयात्रा भी है- मृत्यु। जहां अम्रतत्व न हो वहां मृत्यु है। लेकिन यह भी याद रखें कि जहां अमरत्व है वहां सबसे बड़ा झूठ है- मृत्यु। क्योंकि जो अमर है उसकी मृत्यु कैसी। और अगर जीवन आत्मा है तो आत्मा की मृत्यु कहां। आत्मा तो अजर-अमर है। और अगर हम आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानते हुए शरीर को ही सत्य मान लें तो शरीर तो मरने के बाद भी रह जाता है फिर मृत्यु किसकी हुई। तो फिर मृत्यु का क्या औचित्य। क्या था जो शरीर से चला गया। जीव,प्राण आत्मा कोई भी नाम दे सकते हैं आप इसे। ये सब हमारे ही नामकरण हैं। शायद मृत्यु जीवन की निषेधात्मक स्थिति है। जीवन से अलग मृत्यु को परिभाषित करना ही असंभव है। जहां जीवन नहीं वहीं मृत्यु है। जैसे जहां रोशनी नहीं वहीं अंधेरा है। और जहां रोशनी है वहां अंधेरा नहीं। जीवन और मृत्यु एक दूसरे के सापेक्ष हैं। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवंजन्म- मृतस्य च। जन्म और मृत्यु दो ध्रुव हैं,जैसे पृथ्वी के दो ध्रुव हैं। जैसे चुंबक के दो ध्रुव होते हैं। जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं। चित कभी पट से नहीं मिल पाता है। जबकि रहते दोनों ही साथ हैं। मगर एक-दूसरे से अपरिचित। साथ रहते हुए भी असंबद्ध। जैसे दिये में रोशनी। जैसे बल्ब में विद्युत। रोशनी दिए में ही उतरती है। मगर दिए से कोई रिश्तेदारी नहीं। दिया भी नहीं जानता कि ये रोशनी कहां से आई है और बुझने पर कहां चली जाती है। दिया जो जलता था रोशनी के जाते ही बुझ जाता है। जब कि मरा न तो दिया है और न वो रोशनी। बल्ब के फ्यूज होते ही बल्ब से रोशनी चली जाती है। असीमित का सीमित से जो गत्यात्मक संतुलन बनता है,वही दिए की रोशनी है,वही बल्ब की बिजली और वही प्राणी का प्राण। प्राण, विद्युत और प्रकाश शक्ति है। बजती हुई वाणा का संगीत है-जीवन। वीणा का मौन हो जाना है- मृत्यु। जबकि मृत्यु न तो वीणा की होती है और न संगीत की। शक्ति रूपांतरित होती है कभी नष्ट नहीं होती। अध्यात्म का ज्ञान भी यही कहता है और विज्ञान भी। परमात्मा के अविनाशी अंश आत्मा का शरीर में उतरना जीवन है।  और आत्मा का फिर परमात्मा के विराट में समाहित हो जाना मृत्यु है।
हंसजी, शायद में अपनी बात से आपको सहमत कर पाया होंऊं।
मेरे प्रणाम...

पंडित सुरेश नीरव