Search This Blog

Sunday, May 10, 2009

अगर न जोहराजबीनों के दरमियाँ गुज़रे

अगर न ज़ोहराजबीनों के दरमियाँ गुज़रे

तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे।

जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे

कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ऐ-जाँ गुज़रे।

मुझे ये वहम रहा मुद्दतों कि ज़ुर्रते-शौक

कहीं न खातिरे-मासूम पर गिरां गुज़रे।

हर इक मुकामे-मुहब्बत बहुत ही दिलकश था

मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे।

जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ

हसीं-हसीं नज़र आए जवाँ-जवाँ गुज़रे।

मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदके में

ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे।

बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद जिगर

वो हाद्साते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे।

जिगर मुरादाबादी

प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल

No comments: