अगर न ज़ोहराजबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे।
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ऐ-जाँ गुज़रे।
मुझे ये वहम रहा मुद्दतों कि ज़ुर्रते-शौक
कहीं न खातिरे-मासूम पर गिरां गुज़रे।
हर इक मुकामे-मुहब्बत बहुत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे।
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए जवाँ-जवाँ गुज़रे।
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदके में
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे।
बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद जिगर
वो हाद्साते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे।
जिगर मुरादाबादी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
No comments:
Post a Comment