मकबूलजी बुद्धू बनकर वापस घर लौट आए हैं। मेंने तो उन्हें पहले ही बहुत समझाया था, समझाया क्या ता,धमकाया था कि आप परेशान होने जा रहे हैं,लुत्फ उठाने नहीं मगर विनाश कालेन विपरीत बुद्दि, मकबूलजी नहीं माने और टले गए नैमीशारण्य। खूब लंबी बस यात्रा की और बसेड़ू होकर लौटे। चलो लौटकर अपने ही घर आए,इसलिए उतने बुद्धू तो नहीं बने मगर बन तो गए ही। आते ही उन्होंने ब्लॉग लिखा,यह समझदारी का काम किया और उसमें भी फना बदांयुनी की गजल पढ़वाई, मजा आ गया।
राजमणिजी ने चूहे के माध्यम से बहुत अहम बात कही है। मगर मकबूलजी को क्यों पढ़वाने की जिद की है, समझ नहीं पाया।
मैंने आज बहुत बढिया गजल ब्लॉग पर डाली थी मगर कंप्यूटर हैंग हो गया,इसलिए मेहनत बेकार गई। अब कर लिखूंगा। आज बल नागा न हो इसलिए अपनी हाजरी लगा रहा हूं। जय लोक मंगल.
पं. सुरेश नीरव
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