मेरे पूजा के कमरे में
अंगड़ाई लेता हुआ
अगरबत्ती का धुआँ
गुजरता है मेरे पहलु से
अपनी खास गंध के साथ
तो याद आता है मुझे
वो संकट मोचन मंदिर
जहाँ गुजारी थी मैने
इलाहाबाद की
अनगिनत शामें.....
याद आता है मुझे
अपनी भूख समेटे
प्रसाद की आस में
मंदिर की सीढ़ी पर बैठा
वो बच्चा
जिसकी उदास आँखों में
पलती थी बस एक चाहत
पत्थर होने की
ताकि वो भी पूजा जाता
भक्त भोग चढ़ाते
और
कभी न भूखा सोता....
याद आता है मुझे
अपना मौन रह जाना
उसे कैसे समझाता
इंसानो की तरह ही
हर पत्थर के
अलग अलग नसीब होते हैं
कोई मंदिर में जड़ता है
कोई गहनों में,
तो कोई कब्र पर
मुर्दों के करीब होते हैं..
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-समीर लाल ’समीर’ –
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