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Wednesday, July 29, 2009

सपनों का मर जाना।

आज कई दिन बाद ब्लाग देखा तो पाया कि पश्यंती की रचनाएं पसरी हुई हैं।चांडाल जी ने इस नाचीज की कविता अमरनाथ अमर के नाम से पोस्ट की हुई है।चलो मेरे नाम से ना सही अमर जी के नाम से ही सही कुछ पृशंसा तो मिल गई।बकौल राजमणि जी के ब्लाग पर कोई किसी का इंतजार नही करता सो अपनी गैरहाजिरी की माफी तो नहीं मांगूंगा पर कुछ निजी उलझनो की वजह से ब्लाग से अनुपस्थित होकर कुछ ना कुछ खो रहा हूं स्वीकारने में मुझे कोई हिचक नही। पाश की कविता की एक पंक्ति याद आ रही है--------
घर से जाना आफिस ,और
आफिस से वापस सीधे
घर आना
कुछ ना करना बस घर का होकर
रह जाना,
कुछ ना करना बस घर का होकर
रह जाना,
सबसे बुरा होता है
हमारे
सपनों का मर जाना।

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